Book Title: Jina Pooja Paddhati
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 52
________________ [ ५१ ] वस्थानी भावनाना प्रतीक समां वस्त्राभरणो रही गयां छे, राज्यावस्थानी भावना जे कादाचित्क हती ते आजे मुख्य स्थाने छे ज्यारे मुख्य भावनाओ लगभग भूलाई ज गई छ. ! ए अम्हारी 'जिनपूजापद्धति'मां नित्यस्नान, नित्यविलेपन, नित्य आभरण अने आंगीओ प्रविष्ट थवानां परिणामो! सत्तरमी शताब्दीनी पूजापद्धति-- उपर आपणे जोई आव्या के सोलमी शताब्दी पर्यन्त पूजापद्धति पर्याप्त बदली चूकी हती छतां तेनी मौलिकतामां बहु अन्तर पडद्यं न हतुं, सर्वोपचारी अने अष्टोपचारीना हजी ते ज 'अष्टप्रकारो' हता, मात्र स्नान वध्यु हतुं, महास्नात्रो ओछा थईने लघुस्नात्रोनो प्रचार जरूर वध्यो हतो अने ते तत्कालीन लोकभाषामां गायनरूपे गवाती हती. पण सर्वोपचारी पूजाओ तो त्यां सुधी संस्कृत-प्राकृत पद्योमांज रचाती हती पण सत्तरमी सदीथी अष्टप्रकारी पूजामां अंतिम जलपूजा हती ते उडाडीने स्नानले ज जलपूजा मानी लेवामां आवी. बीजु सर्वोपचारी पूजाओ पण लोकभाषामां कवित्वरूपे बनारीने प्रचलित कराई. आवा प्रकारनी पूजा कृतिओमां अम्हारी दृष्टिए उपाध्याय सकलचंदजीनी सत्तरभेदी पूजा अने एक बीशनकारी पूजाओनी कृतिओ सर्वथी जूनी छे. ए पछी अढारमा अने ओगणीशमा सैकामां पण आवा प्रकारनी अनेक पूजाओनी रचनाओ थई छे अने ए परम्परा चालू ज छे. वीसमा शतकमां पण आवी गानमयी पूजाकृतिओनी रचना. ओ थई छ पण आ कालनी पूजाओमां अपवादरूपे एक वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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