Book Title: Jina Pooja Paddhati
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनपूजापद्धति -लेखक - पन्यास श्री कल्याणविजयजी गणि Jair Education Interne oral Eo Private Personal use Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 837833###### ####### ॥ श्री जिनाय नमः ॥ श्री जिनपूजापद्धति 卐 - लेखक - पन्यास श्री कल्याणविजयजी गणि जEBERROBBBBBBBBBCIRBERRB0030888 -: प्रकाशक :श्री क० वि० शास्त्रसंग्रह समिति जालोर( मारवाड़) FORGETERERECENERAREEBERREDEERENABEERED प्रति २००० वीर सं. २। । [वि सं. २०१३ BE7838333333333333333333332995 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राझिस्थान मी क. वि. शास्त्रसंग्रह समिति (मारवाड )जालोर मुद्रक आनंद प्रिन्टींग प्रेस स्टेशन रोड भावनगर-(सौराष्ट्र) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनपूजापति जूनी अने नवी १. जिनपूजा-प्रारंभिक अने विकसित रूपमा 'जिनपूजा' आगमिक छ के अनागमिक ? ए सर्वज्ञअरूपित छ अथवा छमस्थ-प्रकल्पित ? ए वातोनी चर्चा न करवां अमो पूजानी सृष्टि क्यारे थई ? आनुं प्रारंभिक रूप शु हतु? विकसित थती थती ए कई स्थितिए पहोंची ? विकास. नी अंतिम कोटिथी गवडीने ए केवी रीते विकृतिने मागें चढे छे अने विपरीत परिणामो लावे छे ? इत्यादि बाबतोने ज अमारा विचारोनुं केन्द्र बनावीशुं. भारतवर्षमा प्रागैतिहासिक कालथी जबे धार्मिक संस्कृतिओ पोतानुं काम करी रही हतीः एक जैन अने बीजी वैदिक. जैन संस्कृतिना प्रवर्तक तीर्थकर अने प्रचारको निग्रन्थ श्रमणो हता, आथी ज जैन संस्कृतिने विद्वानो 'श्रमणसंस्कृति' पण कहे छे. आ संस्कृतिनो अंतिम उद्देश आत्माने त्याग-तपध्यान द्वारा कर्मबन्धनोथी मुक्त करवानो होई आमां त्याग मार्गनी प्रधानता हती. वैदिक संस्कृतिना प्रादुर्भावक ऋषिओ अने प्रचारक ब्राह्मणो होई ए "ब्राह्मणसंस्कृति"ना नामथी पण ओळखाय छे. आ संस्कृतिनो मूलाधार 'अग्निहोत्र' हतो. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण ऋषिओनो एवो विश्वास हतो के कोई पण देवने संतुष्ट करवानो उपाय अग्निहोत्र छे, ते ते देवने उद्देशीने तदिष्ट पदार्थ अग्निमां होमवाथी तेने पहोंचे छे अने ते देव तेने अनुकूल थाय छे. आवी मान्यताना परिणामे ज आ संस्कृतिना ब्राह्मण ग्रंथोमां " अग्निमुखा वै देवाः" आवा प्रघोषो लखाणा, एटलुंज नहिं पण प्रत्येक वैदिक संस्कृतिना पूजक द्विजाना घरोमा 'अग्नित्रयीना कुंडो' अने 'अग्निचित्या' गृहो राखवाना उपदेशो थया. ____ जैन संस्कृतिना प्रचारको कहेता 'आत्मानुं दमन करो, संसारमा आत्मा ज दुर्दम छे, दान्त आत्मा ज आ लोक तेम परलोकमां सुखी थाय छे.'* आवा उपदेशो उपर विश्वास राखनाराओ आत्मविजयार्थ विविध तपस्याओ करता, विषयोपभोगोनो त्याग करी, इन्द्रियदमननी अनेकविध प्रवृत्तिो करता. आ संस्कृतिना आद्य प्रवर्तक तीर्थकरो 'जिन' नामथी पण ओळखाता हता. तीर्थंकरोतुं 'जिन' ए नाम एमना विजयने सूचवनारुं छे. कर्म-कषायोने जीतीने आत्मैश्वर्य प्राप्त करनारा आ जिनोने मनुष्यो तो शुं स्वर्गना इंद्रो सुधां पोतानां मस्तको नमावता, एमना उपदेशामृतनुं पान करता अने एमर्नु दास्य स्वीकारता * अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य !! Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हता. मनुष्यो तो एमनी पुण्यसमृद्धिने जोईने ज अंजाई जता, पण जिनो कांई सदाकाल एक ज स्थाने रहेता नहि, जगतना जीवोना हितार्थे तेओ जुदा जुदा देश-प्रदेशोनुं पर्यटन करता रहेता. जे देशमाथी तेओ विहार करी जता, ते देशना तेमना परमोपासक बनेला गृहस्थो तेमना विरहमां तेमनुं दर्शन करवाने तरसता अने झूरता, पण ते कई एवी वस्तु न हती के कोईनी इच्छा मात्रथी मळी जाय. परिणामे तेओ षोतानी दर्शनेच्छाने पूर्ण करवा तेमना आकारो चीतरावीने के तेमनां प्रातेविंधो करावीने पोतपोताना घरोमां राखता अने तेमना दीदार निरखी-निरखीने नयनोने तृप्त करता. आम मनुष्य नी दर्शनेच्छामांथी मूर्तिनो प्रादुर्भाव थयो. वस्त्र पट्ट, फलकपट्टादिना रूपोमांथी धीरे धीरे धातु, रत्न, पाषाण सुधी पहोंचीने ए मूर्तिए एक सुन्दर शिल्पाकृतिनुं रूप धारण कयु. सारामां सारा किम्मती पाषाणो तथा सोना, चांदी, तात्र, पीतल आदि धातुओनी मूर्तिओ बनवा लागी. साथे साथे तीर्थकरोनी योगविभूतिना फलविपाकरूप प्रातिहार्योनुं चित्रण पण प्रतिमाओनी साथे थवा मांडयुं, ए बधुं छतांये त्यांसुधी दर्शन, नमन अने स्तवन सिवाय बीजी पूजामां कोई समजतुं न हतुं. भावनामांथी पूजानो विकास हजारो अने लाखो वर्ष पहेलांनी भारतभूमि नन्दनवन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नी स्पर्धा करनारी हती, यथेच्छ वृष्टि थती हती, वर्षाः कालीन ज नहीं, शीतकालीन धान्यो पण वृष्टिजलथी पाकतां हता, प्रतिग्राम नगरोनी बहार एकाधिक वनोद्यानो आवेला हतां, फलवृक्षो अने पुष्पलताओथी समृद्ध उपवनो सर्वसाधारण प्रजाजनोना उपयोगनी चीज बनेला सुरक्षित रहेतां, सुगन्धि पुष्पो अने काष्टोमांथी बनेल 'चम्पकगन्धी, उत्पल. गन्धी' आदिना नामोथी प्रख्यात सुगंधि चूर्णो, बत्तिओ अने तेलो गांधीओनी दुकानोमां विक्रयार्थ प्रस्तुत रहेतां, सुगंधी चूर्णो गंधपुडिओना रूपमा मनुध्यो पासे राखता, बत्तिओ 'सुगंधवर्ति'ना नामथी ओळखाती हती जनो धूमाडो मनुष्यो जम्या पछी सुंघता हता, तेलोनो प्रायः शीत कालमां ज उपयोग थतो. गरीबमा गरीब माणस पण आ भोगसामग्रीनो प्रतिदिन उपयोग करतो. आ हती तत्कालीन समृद्ध भारतनी भोगसमृद्धि. आ भोगसमृद्धिनो उपभोग करता जिनभक्तना मनमा भावना थई 'हुं आ सुखसाधनोनो उपभोग करुं अने म्हारा आराध्यदेव जिनेश्वर भगवानने माटे कई नहिं ?" तेना मनमा अर्पण भावना उत्पन्न थई. तेणे पोताने माटे तैयार करेल सुगंधि चूर्णनी पुडी पोताना देवने चढावी दीधी, पुष्पमाला पण देवने पहेरावी दीधी, सुगंधि वर्ति सलगावीने देवने धृप कर्यो, पोताना घरमां सारामां सारं धान्य चावल जोईने देवनी आगळ तेनी त्रण ढगलीओ करी अने पोताने त्यां प्रतिदिन ___ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] घृतनो दीपक थतो होई देवनी आगल पण घृतनो दीपक. प्रगटाव्यो. आम भक्तनी भावनामांथी प्रथम 'पंचोपचारी पूजा' प्रचलित थई. गरीब अने मध्यम वर्गमां ते काले एटली ज सात्विक चीजो हती जे तेणे पोताना इष्टदेवने अर्पवार्नु चालु कयु, पण देव के धर्म कई गरीब के मध्यमवर्गना हृदयो सुधी ज पोतानी स्थिति मर्यादित राखतो नथी, ते श्रीमन्तो, राजाओ अने देवदानवो सुधी पहोंचे छ. जिनभक्तोमा जेम मध्यम वर्गनी लाखोनी अने क्रोडोनी संख्या हती तेम हजारो अने लाखोनी संख्या श्रीमंतोनी पण हती. तेवी स्थितिवाला भक्त गृहस्थोनी भावना थई यद्यपि भगवान् चढावेल पुष्पादि भोमसामग्रीनो उपभोग करता नथी छतां चढावनारने तेना भावोल्लासने अनुसारे मानसिक संतुष्टि थाय छे तो अमो ताजां फलो, मधुर पक्कानो जाए तेम आराध्य देवने चढावीये तो विशेष लाभ थशे ज एम विचारी तेमणे मूर्तिनी आगळ ताजां पाकां मीठां फलो अने मधुर पक्कानो पण चढावा चालु कर्या, अने खाद्य पदार्थों ढोवानुं थयुं एटले आचमनार्थ जलन तो स्मरण थाय ज! छेल्लुं स्वच्छ जल भरीने शीतल जलपात्र पण आगल मूकवानुं चालु कयु. ए प्रकारे धीरे धीरे "पंचोपचारी" अने 'अष्टोपचारी पूजाओ प्रचलित थई. आम द्रव्यपूजानो प्रचार गृहस्थ जिनभक्तोए कर्यो छतां आ वस्तु सार्वत्रिक प्रचार पामी चूकी, मूर्तिना दर्शन, पूजनथी गृहस्थ धर्मियोनी धार्मिक श्रद्धानी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] दृढतार्नु ए कारण जाणीने कालान्तरे जैन आचार्योए ए वस्तुने ग्रन्थबद्ध करीने विशेष विधिओथी व्यवस्थित करी अने गृहस्थ धर्मियो माटे आ द्रव्य पूजानो पण धर्मना अंगरूपे स्वीकार कर्यो. २. जिनपूजा-विकासना अन्तिम शिखरे पूर्व जणाव्या प्रमाणे नमन-स्तवनमाथी धीरे धीरे पंचोपकारी तेमज अष्टोपचारी पूजानो प्रादुर्भाव थयो अने असंख्य काल पर्यन्त ए बंने प्रकारनी पूजाओ पोताना सादा अने सरल रूपमां चालती रही. श्रमणसंस्कृतिना उपासको पोताना घरोमां एक खास रुम देवपूजा माटे वनावी देता अने एमना पाडोसी वैदिकर्मिओ एवी ज रीते पोताना घरोमां एक 'अग्निचित्या'ने योग्य रुम बनावता अने बहुज सादी रीते अग्निहोत्रो द्वारा पोताना वैदिक देवोनी उपासना करता हता. गोमेधो, पितृमेधो आदि हिंसायज्ञो के तेवा प्रकारना अन्य क्लिष्ट क्रियाकाण्डोनो त्यां सुधी प्रादुर्भाव नहोतो थयो. समय घणो शुभ हतो, जनसमाज सरल, साविक अने अल्पकषायी हतो, तेथी बधा सुखी अने संतुष्ट हता. लगभग ४००० वर्षो पहेलां देश-कालनी आवी स्थिति हती. पौराणिक परिभाषानुसार कलियुगनां १०००थी अधिक वर्षों बीती गयां हतां, जैन परिभाषा प्रमाणे चोथो आरो Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९ ] वीतवा आव्यो हतो, अने पांचमा दुःषमारकनी छाया निकट आवी रही हती. संध्याकालमां थता प्रकृतिपरिवर्तननी जेम ए महाकालनी संध्यामां विशेष रीते प्रकृति-विपर्यास वधतो गयो. क्रोधादि कषायोनी विशेष वृद्धि थती गई, जनमनो रागद्वेषे प्रचुर थतां गयां, कालवर्षी मेघो अकालवर्षी थया, वृष्टिनी अल्पता तथा अनियमितताना कारणे धान्य संपत्ति घटी, गोधन घटयु, दुर्भिक्ष-ईति-उपद्रवो वधतां जनवसतिओ उजडती गई, राज्योनी आवको घटवा मांडी अने राजाओ उद्विग्न थईने वर्णश्रेट अने विद्यापारीण एवा ब्राह्मण-ऋषिओने शरणे गया अने आ विषम कालजन्य परिस्थितिथी बचवाना उपायो पूछया, जेना उत्तरमा ब्राह्मणोए भिन्न भिन्न संकटोमांथी पार उतरवा भिन्न भिन्न अभिचार प्रयोगो-मंत्रानुष्ठानो-नी सृष्टि करी के जेनो संग्रह कालान्तरे 'अथर्ववेद' नामथी प्रसिद्ध थयो. आम मूल वैदिक संस्कृतिना पतननो आरंभ आ अथर्ववेदना प्रादुर्भाव पछी थयो के जेनो समय २५०० वर्ष पहेलांनो छे. वैदिक धर्मिओमां ते पहेलां हिंसायज्ञो जटिल अनुष्ठानो जेतुं कई हतुं नहिं, अग्निपूजा विना एमना घरोमां बीजा कोईनी पूजा हती नहिं, पण ते पछी धीरे धीरे काम्य यज्ञानुष्ठानो वध्यां, अभिचारप्रयोगो वध्या एटलं ज नहिं पण वैदिक देवोनां स्थानो शनैः शनैः रुद्रो, स्कंदो, यक्षो, भूतो अने ए ज प्रकारना अन्य जघन्य देवोए ग्रहण कया. जो के विद्वान् ब्राह्मण वर्ग ए अति प्रवृत्ति Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] ओथी विरुद्ध हतो छतां जनतानो प्रवाह रोकवो तेमना काबू बहारनी वात थई पडी हती. तेमना पूर्वजोए कालविशेषने अंगे जे करवानी वातो लखी हती तेनो सार्वकालिक कर्तव्योना रूपमा प्रचार थई गयो, आगल जतां बलदेव, वासुदेव, स्कंद, रुद्रादिनी मूर्तियो अने मंदिरो बनवा लाग्यां. आजी २५००-२७०० वर्षो उपर वैदिक संस्कृति, यथार्थरूप केवल ब्राह्मणोना घरोमां ज रही गयुं हतुं, वैदिक धर्मना उपासक क्षत्रियो, तेमना मार्गदर्शक केटलाक ब्राह्मणो, वैश्यो अने शूद्रोनां मनो अने घरो अनेक देवताओनां स्थानो बनी चूक्यां हतां, नगरो अने ग्रामोनी बहार गायो माटेनां सुरक्षित गोचरोमां पण यक्षो, नागो, भूतो विगेरे पहोंची गया हता अने गोच. रोने पोताना नामोथी विशेष सुरक्षित कयाँ हता. आवी बदलायेली परिस्थितिमा मूल वैदिक मार्गने पकडी रहलो ब्राह्मण वर्ग क्या सुधी टकी रहेबानो हतो ? तेमनी पासे जे वेदसंहिताओ, ब्राह्मणो, आरण्यको, श्रोतसूत्रो, उपनिषदोरूप जे वैदिक साहित्य हतुं तेनाथी तेओ सामान्य जनतानुं मन संपादन करी शके तेवी स्थितिमा न हता, एटले प्राचीन संस्कृतिना मूल स्रोत समा वेद ब्राह्मणादिने विद्वानोने माटे सुरक्षित राखी मूकीने ते शास्त्रोना सारनी संक्षिप्त यादीओ (स्मतिओ) पद्योमा रीने भिन्न भिन्न ऋषिओना नामे चढावीने तेनो प्रचार कर्यो, पण आथीये जनमानस संतुष्ट न थयुं, त्यारे Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] पौराणिक पद्धतिनुं सर्जन कर्यु. विष्णु आदि देवो एमना अवतारो आदिनी कल्पनाओ थई, एक पछी एक तेमना नामना पुराणोनी रचनाओ थई अने तेमां देवतानी पूजाओ, तेमना तोषार्थे व्रतो, दानो, तपो अने भक्त्यनुष्ठानोना उपदेश कराया अ आ पौराणिक धर्मपद्धतिए ज प्रजाना मानसने आकर्षीने सामान्य जनताने ब्राह्मण धर्ममां स्थिर करी. आर्यसमाजीओ के आजना शिक्षितो पुराणोने अंगे भले गमे वो अभिप्राय उच्चरे पण अमारी मान्यता प्रमाणे तो जैन अने बौद्ध धर्मनो सर्वतोमुखी प्रवाह आ पुराणोए ज खाल्यो छे अने आजे क्रोडो मनुष्यो जे भिन्न भिन्न पौराणिक संप्रदायोना अनुयायीओ छे ए पुराणोनो ज प्रताप समजत्रो जोईये, अने मूर्तिपूजा के जेने 'मनुजी' जेवाओए दारुना पीठानी हीनोपमा आपीने विक्कारी हती ते आजे वेद माननारा संप्रदायामां धर्मं अंग बनीने रही छे, एमी पण पुराणोनो सहकार ओछो नथी. पौराणिक कालना प्रारंभ( विक्रमना बीजा सैका ) थी वैदिक धर्मानुयायिओमां प्रतिदिन मूर्तिपूजानो प्रचार तो गयो. ठेकठेकाणे ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य आदिनां धामो बंधायां अने विविध प्रकारनी पूजापद्धतिओ प्रचलित थई अने वैष्णवोना संप्रदायो प्रगट थया, पछी तो तेमनी पूजापद्धतिओ अंतिम कोटिए पहोंची गई हती. जिनपूजामा विकास नुं अंतिम रूप बताववानी प्रतिज्ञा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ । नीचे अमो दूर चाल्या गया छीए ए वस्तु अम्हारा ध्यानमां छे, पण आम कर्या विना छूटको न हतो. एक समयना केवल अग्निपूजक वैदिको केवी परिस्थितिओने वटावीने समय जतां मूर्तिपूजको बने छे अने आद्य मूर्तिपूजक जैनोथी पण बे डगला आगळ निकले छ एनो इतिहास जाण्या विना जैन मूर्तिपूजाना विकास अने विकारनो इतिहास खरा रूपमा समजी शकाय तेम नथी. उपरना निरूपणथी समजी शकाशे के एक समय केवल जैन उपासकोना घरोने शोभावती मूर्तिपूजा भारतभरना सभ्य समाजमां पहोंची गई हती, एटलं ज नहिं पण ते जैनोना पाडोसी वैदिकोना घरोमां पांच अने आठ उपचारोने वटावीने अनेक उपचारोना रूपमा फेलाई गई हती, पोताना पाडोसीओनी आ विविध प्रकारनी भक्तिनो प्रभाव जैन उपासकोनां मनो प्रभावित करे, ए स्वाभाविक हतुं. जैन उपदेशकोए गृहधर्मिोनी भावनाने पोपण आपवा खातर पोतानी उपदेशधारा कंईक आगळ वधारीने उत्सयो अने पर्वोना महत्वपूर्ण प्रसंगोने अनुलक्षीने 'स्नानोत्सर' नो उपदेश कर्यो. आ 'स्नानोत्सव' (पहाणामह) ज आगल जतां 'सर्वोपचारी' नामथी प्रसिद्धि पाम्यो. 'स्नानमह' नी उत्पत्ति पण २५००२७०० सो वर्ष पछीनी तो नथी ज. जैन सूत्रोनी पंचांगीमां एना 'व्हाणमह' नामथी उल्लेखो मले छे. ए बधुं होवा छतां पण 'हाणमहो' के सर्वोपचारी पूजाओ जैन उपासकोना नित्य Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] कर्तव्यमां परिगणित न हती. महातीर्थयात्राओना उत्सवोना प्रसंगोए, प्रतिष्ठाओना प्रसंगोमां के कल्याणकादि उत्सवोमां ए स्नानोत्सव कराता हता के ज्यां लाखो मानवोनो समुदाय एकत्र थतो, तेना मन उपर आ महापूजानो चिरस्मरणीय प्रभाव पडतो तो अने देखनाराओ पोताना जीवनने सफल थयुं मानता हता. सर्वोपचारी पूजानुं स्वरूप अने फल " सव्वोवयार जुत्ता, व्हाणच्चणनट्टगीयमाईहिं । पव्वाइएस कीरइ निचं वा इड्डिमतेहिं ॥ घय - दुद्ध - दहिय-गंधोदयाइण्हाणं पभावणाजणगं । सइ गीय-वाइयाइ - संयोगे कुणइ पव्वेसु । ” ----- अर्थात् - सर्वोपचार युक्त पूजा स्नान, विलेपन, नाटय, गीत आदिनी साथे पर्वादिमां कराय छे अथवा ऋद्धिमन्त गृहस्थो द्वारा रोज पण कराय छे. सर्वोपचारी पूजामां घृताभिषेक, दुग्धाभिषेक, दध्यभिषेक, सुगन्धि जलाभिषेकवडे स्नानमहोत्सव प्रभावनाजनक बने छे, पण आ पूजा गीत, वादित्रादिकनो योग मलतां पर्वोमां करे छे. पंचोपचारी तथा अष्टोपचारी पूजानुं वर्णन प्रारंभमां करी आव्या छीये छतां ते अंगे पूर्वाचार्योंना ग्रन्थोनुं प्रमाण आप विशेष उपयोगी गणाशे. चैत्यवन्दन महाभाष्यमा सर्वोपचारी पूजानुं वर्णन पूर्वे Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] ज आप्युं छे, पंचोपचारी तथा अष्टोपचारी आ बने पूजाओगें निरूपण आ प्रमाणे कयुं छे. "पंचोक्यारजुत्ता, पूमा अट्ठोवयारकलिया य । इड्डिविसेसेण पुणो, भणिया सब्बोवयारा वि।। तहियं पंचुवयारा, कुसुमक्खयगंधधूवौवेहिं । फलजलनेविजेहिं सहहरूवा भवे सा उ॥" अर्थात्-'पंचोपचार युक्त पूजा, अष्टोपचार सहित पूजा अने ऋद्धिविशेषना योगे सर्वोपचारयुक्त पूजा आम पूजा त्रण प्रकारनी कही छे तेमां पंचोपचारी पुष्प, अक्षत, गंध, धूप, दीपवडे कराय छे अने आने ज नैवेद्य, फल अने जल साथे गणतां अष्टोपचारी पूजा थाय छे." श्री चंद्रमहत्तरजीकृत अष्टोपचारीनुं निरूपण" वरगंधधूवचुक्खक्खएहि कुसुमहिं पवरदीवहिं । नेविजफलजलेहिं य, जिणपूआ अहहा होइ ॥" अर्थात्-श्रेष्ठ गंध १, धूप २, अखंड चोखा ३, पुष्प ४, दीपक ५, नैवेद्य ६, फल ७ अने जल ८ ए द्रब्योना प्रकारोथी पूजा आठ प्रकारनी थाय छे. एज प्रमाणे अनेक पूर्वाचार्योए अष्टविध पूजामुं निरूपण कयुं छे. जलपूजा प्रायः छेल्ली जणावी छे अने अष्टप्रकारीमां जलपूजाने स्नानरूपे नहिं पण नैवेद्य, फल ढोक्या पछी निर्मल मधुर ठंडा जले भरीने जलपात्र आगल मूकवानुं विधान ___ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] कयुं छे. आचार्यश्री हेमचन्द्रमुरिजीए योगशास्त्रनी टीकामां उधृत करेल एक प्राचीन पद्यमां तो ए वस्तुने विशेष स्पष्ट करी दीधी छे, ते पद्य आ प्रमाणे छ" गन्धैर्माल्यैर्विनिर्यद्बहलपरिमलैरक्षतेधूपदीपैः, सान्नाज्यैः प्राज्यभेदैश्चरुभिरुपहृतैः पाकपूतैः फलैश्च । अम्भःसंपूर्णपात्रैरिति हि जिनपतेरर्चनामष्टभेदां, कुर्वाणा वेश्मभाजः परमपदसुखस्तोममाराल्लभन्ते ॥" अर्थात्-जेमाथी भरपूर सुगंध निकली रही छे एवा गंधो १, पुष्पमालाओ २, अक्षतो ३, धूपो ४, दीपको ५, अन्न घृतबडे बनावी प्रस्तुत करेला घणा प्रकारना नैवेद्यो ६, ताजां पाकेल पवित्र फलो ७ अने जलपूर्ण पात्रो ८ ए आठ पदार्थोवडे जिनेश्वरनी पूजा करता गृहस्थधर्मिओ वहेला मोक्षसुखसमूहने पामे छे. अष्टोपचारी पूजाने अंगे अमोए उपर जे अवतरणो आप्यां छे तेओमां पूजा योग्य आठ द्रव्योनी सूचना मात्र छे. मूल ग्रंथोमां एक एक पूजानुं पांच पांच, सात सात श्लोकोमा वर्णन कयु छे, द्रव्योर्नु वर्णन, चढाववानी रीति, पूजाओनो क्रम अने प्रत्येकनुं फल, दृष्टान्तसूचन वगेरे करेल छे. जलपूजाना निरूपणमां जल केबु जोईए, केवा प्रकारना पात्रमां भरीने जल आगल मूकबू, एना फल उपर दृष्टान्त आदि विस्तारपूर्वक वर्णन छे, पण कोई प्राचीन ग्रंथमां प्रक्षालन, ___ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] जलाभिषेक के चंदनादि विलेपन पूजानुं सूचन मात्र मलतुं नथी, एथी ए वस्तु दीवा जेवी स्पष्ट थई जाय छे के पूर्वकालीन अष्टोपचारी वा अष्टप्रकारी पूजामा स्नान के चंदनादि विले. पनने स्थान न हतुं. अष्ट उपचारोमां जलोपचार हतो पण स्नानरूपे नहिं पण आचमनरूपे. पंचोपचारीमा जल नथी केमके तेमां कोई खाद्य वस्तुनुं अर्पण नथी, अष्टोपचारीमा नैवेद्य अने फलो खाद्य पदार्थों छे एटले आचमन भावनाथी जलपात्र आगल धरवु आवश्यक होई आठमो नंबर जलपूजाने मल्यो. सर्वोपचारीमा स्नान, विलेपन, गीत, नृत्य आदि बधुंये छे पण ए वस्तु पर्वानुष्ठय छे, वर्षमां के वर्षोमां आवो प्रसंग आवतो के जे वखते देशपरदेशना संघो संमिलित थता अने 'स्नानमह' करता हता, एवी ए महत्वनी वस्तु हती, एमां भाग लेनारा भाविको अने नजरे निहालनार भद्रपरिणामी आत्माओ आवा प्रसंगने उजवी के निहालीने पोताना जीवितने सफल थयुं गणता हता. सर्वोपचारी पूजाना सर्व भेदो १७ सर्वोपचारी पूजाना एकंदर १७ भेदो सुविहितकालमां ज नियत थई चूक्या हताजेनुं निरूपण जीवाभिगमादि उपां. गोमां करायेलुं छे अने ते उपरथी पूर्वाचार्योए पण पोताना ग्रन्थोमां गाथाओमां वर्णन आपेल छे, जे नांचे प्रमाणे छे ___ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] " सत्तरसभेयभिन्ना, ण्हवणचण देवदूसठवणं वा । तह वासचुनरुहणं, पुप्फारुहणं सुवण्णवारुहणं ।। पणवण्णकुसुमवुट्ठी, वग्घारियमल्लदामपुप्फागहं । कप्पूरपमिइगंधचण-माहरणविहियं जं ॥ इंदद्धयस्स सोहा-करणं चउसु वि दिसासु जहसत्ति । अडमंगलाण भरणं, जिणपुरओ दाहिणे वा वि ।। दीवाइ अग्गिकम्म-करणं मंगलपईवसंजुत्तं । गीयं नर्से वजं, अट्ठाहियसयथुईकरणं ॥ एए सत्तरभेया, आगमभणिया य दव्वपूयाए । जिणपडिमाण चउकग-दुगनिक्खेवस्सा वि भावजुआ।" अर्थात्-पूजा सत्तर भेदोवडे भेदायेल छे, ते आ प्रमाणेस्नान अने चंदनादि विलेपन १, दिव्यवस्त्रयुगलपरिधान २, सुगंधवासचूरोपण ३, पुष्पारोहण ४, वर्णकारोहण ५, पंचवर्णपुष्पवृष्टि ६, लटकावेल फूलमालाओगें पुष्पगृह ७, कर्पूर प्रमुख गंधपूजा ८, आभरणविधि ९, चारे दिशाओमा यथाशक्ति इंद्रध्वजो ऊभा करीने शोभा करवी १०, जिन आगल अथवा तेमने जमणे पडखे आठ मंगलो भरवा ११, दीपक आदि अग्निकर्म (आदि शब्दथी धूप) १२, आरती मंगल दीवो १३, गीत १४, नृत्य १५, वाद्य १६, अष्टाधिकशत वृत्तोवडे स्तवना करवी १७. द्रव्य पूजाना आ सत्तर भेदो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] आगमकथित छे. जिनप्रतिमानी चार अथवा बे निक्षेपके पण भावयुक्त पूजा करवी जोईये. पूजाना विकासकालमा उत्पन्न थयेल पूजाना अन्य भेदो अने तेना अधिकारीओ"पूआ देवस्स दुहा, विनया दव-भावभेएणं । इयरेयरजुत्ता वि हु, तत्तेण पहाण-गुण-भावा ।। पढमा गिहिणो सा वि हु, तहा तहा भावभेयओ तिविहा । काय-वय-मणविसुद्धि-संभूओगरणपरिभेया॥ सव्वगुणाहिगविसया, नियमुत्तमवत्थुदाणपरिओ सा । कायकिरियप्पहाणा, समंतभद्दा पढमपूआ ।। बीया उ सव्वमंगल-नामा वायकिरियापहाणे सा। पुव्वुत्तविसयवत्थुसु, ओचित्ताणयण भेएणं ।। तइया परतत्तगया, सव्वुत्तमवत्थुमाणसनिओगा । सुद्धमणजोगसारा, विनया सबसिद्धिफला ॥ पढमा बंधगजोगस्स, सम्मदिद्विस्स होइ पढमत्ति । इयरेयरजोगेणं, उत्तरगुणधारिणो नेया॥ तइया तइयाउबंधग-जोगेण परमसावगस्सेवं । जोगाय(जोगेहि ) समाहीहिं, साहुसमकिरियफलकरणं ।। अर्थात्-देवनी पूजा द्रव्य अने भावभेदवडे बे प्रकारनी जाणवी जोईये. जो के द्रव्य-भाव अन्योन्ययुक्त छे छतां प्रधानगौणभावे बंने भिन्न छे. प्रथम पूजामां द्रव्यनी प्रधानता छ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९ । त्यारे बीजीमां द्रव्य गौण बनी ते भाव प्रधान बने छे. आ कारणे बंने पूजाओ जुदी मानेली छे. प्रथम द्रव्यपूजा गृहस्थने योग्य छे, अने ते पण तथाप्रकारना भावभेदोर्थी त्रण प्रकारनी होय छे. कायिक, वाचिक, मानसिक विशुद्धिसंभृत उपकरणोना भेदे, तेमां कायप्रवृत्ति प्रधान प्रथम पूजा सर्वाधिक विषयवाली होय छे एटले के आ प्रथम पूजाना अधिकारीओ सर्वथी अधिक होय छे. आ पूजामा पोतानी उत्तम वस्तु देवने अर्पण करीने संतुष्टि प्राप्त करवानी भावना मुख्य होय छे. आ पूजामां शारीरिक प्रवृत्तिनी प्रधानता होय छे. ए पूजानुं नाम ग्रन्थकारोए 'समंतभद्रा' आपलं छे. बीजी पूजानुं नाम 'सर्वमंगला' छे. आ पूजा वचनक्रियाप्रधान होय छे. प्रथम पूजामा अर्पण कराती वस्तुओने विषे औचित्यनो विचार करी प्रेष्यादिद्वारा मंगावीने पूजामां तेनो प्रयोग करवो. आ भेदथी पहेलीथी आ बीजी पूजा जुदी पडे छे. त्रीजी द्रव्यपूजानुं नाम छ ' सर्वसिद्धिफला' आ पूजामां उत्तम तत्चर्नु चिन्तन कराय छे, पूजा योग्य सर्वोत्तम वस्तुनी गवेषणामां मनने जोडे छे, आ पूजामां शुद्ध मनोयोगनी प्रधानता होय छे. आ तृतीय पूजा नाम प्रमाणे सर्व प्रकारे सिद्धिफल आपनारी छे. आ पूजामां कायिक प्रवृत्तिओ अने वाचिक आदेशो बंध थई जाय छे अने मानसिक शुभ भावनाओनी प्रधानता होय छे. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] प्रथमा 'समंतभद्रा' पूजा बंधकयोगी अविरति सम्यग् - दृष्टिने उपकारक होय छे, बीजी 'सर्वमंगल' पौषध, प्रतिक्रमणादि उत्तर गुणधारी सामान्य श्रावकने करवा योग्य होय छे ज्यारे त्रीजी 'सर्वसिद्धिफला' पूजा तत्काल अबन्धक योगवडे परम श्रावकपणाने पामेल गृहस्थ धर्मीने माटे योग्य गणाय छे. आ पूजानो अधिकारी परमश्रावक कायिकादि योगोनी विशुद्धि अने मनोयोगनी समाधिवडे आ पूजा करी शके छे अने साधुयोग्य गुण तथा क्रियानुं फल निपजावे छे. पूजामां हिंसानी शंका पूयाए कायवहो, परिकुट्ठो सो य णेव पुजाणं । उवयारिणित्ति तो सा, परिसुद्धा कहणु होइ ति ॥ भण्णइ जिणपूयाए, कायवहो जति वि होइउ कहि चि । तह वितई परिसुद्धा, गिहीण कूवाहरणजोगा || असदारम्भपवत्ता, जं च गिही तेण तेसि विनेया । तन्निव्वित्तिफलच्चिय, एसा परिभावणीयामिणं ॥ उवगाराभावमि वि, पुज्जाणं पूयगस्स उवगारो । मंतादिसरण - जलणाइ-सेवणे जह तहेहं पि ॥ देहादिणिमित्तं पि हु, जे कायवहमि तह पयङ्कंति । जिणपूया काय वहमि, तसिमपवत्तणं मोहो || "" अर्थात् - पूजामां पृथिवीकाय आदिनी हिंसा थाय छे अने 66 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१ ते शास्त्रथी निषिद्ध छे. वळी पूजा पूज्यनो उपकार करनारी पण नथी, तो पछी ए परिशुद्ध केम कही शकाय ? शंकानो उत्तर आपता आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी कहे छ के-जिनपूजामां यद्यपि क्वचित् कायवध थाय छे तो पण ते यूजा गृहधर्मियोने माटे तो विशुद्ध ज होय छे, कूपना दृष्टान्तथी. (कूपनो दृष्टान्त आ प्रमाणे छे-जलना अभावे ग्रामीणो दुःखी हता, तेओए कोई जलस्रोतवेत्ताने बोलावीने पूछयु. तेणे भूमिना विभागो जोईने एक प्रदेश बतावीने कडं-आ स्थले आटला हाथ नीचे जल निकलशे. लोकोए सारो समय जोईने त्यां खोदवा मांडयु. खोदवामां दिवसोना दिवसो वीती गया, खोदनाराओ थाके भराता, धूल खरडाता छतां भावी सुखनी आशाथी तेओ खोदता खोदता जलवेत्ताए बतावेल ऊंडाण सुधी पहोंच्या अने खरे ज तेमनी आशा पूरी करनारो जलस्रोत प्रगटयो, लोकोना आनंदनो पार न रह्यो. लोको नााह्या, थाक उतार्यो, पीने तरस बुझावी अने सदानुं जलकष्ट दूर थयु. ए ज दृष्टान्ते पूजा करनारने सामान्य रीते आरंभजन्य हिंसारूप आश्रव लागे, द्रव्यनो खर्च करवो पडे अने समयनो भोग आपको पडे पण पूजाथी भावविशुद्धि अने श्रद्धाविशुद्धि द्वारा तेने जे लाभ मले छे तेना मुकाबलामां तेणे आपेल भोग तथा तनिमित्तक आस्रव कशी गणनामां होतां नथी.) वली गृहस्थो असद् आरंभमां प्रवृत्ति करनारा होय छे Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] तेथी जे समय तेमनो पूजाभक्तिमां वीते छ तेटलो समय तेओ असद्-सांसारिक आरंभोथी बचे छ ए दृष्टिए पण पूजा गृहस्थोने माटे 'असदारंभनिवृत्तिफला' बने छे, ए वस्तुनो समजदार माणसोए ऊंडो विचार करवो घटे छे. पूजा पूज्यने उपकारक नथी छतां पूजकनो ता उपकार थाय ज छे, जेम मंत्रस्मरणथी मंत्रनो उपकार थतो नथी छतां साधकने तेथी लाभ थाय छे, अग्नि सेवा करवाथी अग्निनो कोई उपकार थतो नथी छतां निकट जई तेने सेवन करनारनी शीतपीडा दूर थाय छे, एज प्रकारे जिनपूजामा पण समजवू बोईए. भले पूजाथी पूज्यने कंई उपकार न थाय पण पूजा करनारने तात्कालिक भावोल्लासद्वारा जे श्रद्धाशुद्धि अने जिननकट्यनो लाभ थाय छे ए उपकार कंई जेवो तेवो नथी. आ उपकारनी आगल लागेल आरंभ कशा हिसाबमा आवतो नथी. जेओ पोताना शरीर आदिने माटे जेमतेम कायवधमां प्रवृत्तिओ करे छ तेमनुं जिनपूजामां आरंभ समजी दूर रहेg ए वास्तवमां तेमनो व्यामोह छ के जेथी तेओ दिशा भूली गया छे. बाकी ज्ञानीओ तो कहे छे"अप्पेण बहु भेसेजा, एयं पंडियलक्खणं" अर्थात्-थोडाना भोगे घणुं मेलववानी इच्छा करवी ए पंडितनुं लक्षण छे.' गृहस्थधर्मी ज नहि सर्वविरतिधारी साधु पण देशकालने अनुसरीने विशेष लाभy कारण जाणीने सामान्य अपवाद मार्गनुं आलंबन लेवा छतां आराधक गणाय छे, तो गृह Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] स्थने माटे तो कहेतुं ज शुं ? अप्रशस्त आरंभमां डूबेल जीवननी बेचार घडीओ पण धार्मिक वातावरणमां व्यतति थाय तो महान् लाभदायक गणवी जोईये. दिवसभर सालडां रंगवानां कारखानामां काम करनार मजूर छूटो थईने ज्यारे घडीभर बागमां फरे छे ते वखते तेनी मानसिक प्रसनता केवी होय छे, ए तो तेनो भुक्तभोगी ज जाणी शके छे. पूजा ओनुं पौर्वापर्य उक्त भावपूजा द्रव्यपूजाओमां पौर्वापर्य शुं छे ! प्रथम भाव अने पछी द्रव्य ? अथवा प्रथम द्रव्य अने पछी भाव ? घणी धार्मिक क्रियाओने अंगे एम संभळाय छे के प्राथमिक द्रव्य क्रियाओनां पगथियां वटावीने मनुष्य भाव क्रियाओ सुधी पहोंचे छे तेम पूजाने अंगे समजवुं के बीजी रीते ? एनो उत्तर ए छे के द्रव्य अने भाव बने अन्योन्यविद्ध छे छतां बेमां पौर्वापर्य तो छे ज. प्रथम मनुष्यनी भावना थई के म्हारा देवने अमुक द्रव्योवडे पूजुं ' अने 'ए भावनानुसार तेणे द्रव्य सामग्री जोडीने इष्टनी पूजा करी' आमां प्राथमिकता भावने मले छे. वास्तवमां पण भाव पूजानो नंबर पहेलो ज छे, जे वखते मानव जातिने दान के समर्पणनुं कशुं ज्ञान न हतुं ते वखते पण तेमां विनीतता, कृतज्ञता आदि भावो तो हता ज अने कृतज्ञतादि भावनामांथी ज आगल जतां समर्पणबुद्धि उत्पन्न थतां द्रव्य " Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] पूजा उत्पन्न थई, ए वातनुं सूचन अमो पहेला पण करी आव्या छीये. मूर्तिपूजा करवी जोईये के नहिं ? __ भारतवर्षमा ज नहिं पण मूर्तिपूजा मानवा न मानवाना झगडा संसारभरमां फेलायेला छे. एने लईने लोहीनी नदीओ वही छ अने हजारो निर्दोष मनुष्योना प्राण गया छ छतां आ प्रश्ननुं कोई निराकरण करी शक्युं नथी के 'मूर्तिपूजा करवी जोईये के नहि" . माणस केटलो भोलो छ ? ते पोते दिवसमां केटलीय सजीव निर्जीव मूर्तियोनां दर्शन करे छे, तेमनी पूजा करे छे, अने बीजाओने ए विषे पूछतो फरे छे ? ते बापदादाओ, मुरब्बी मसोद्दीओ, अधिकारी अफसरोनुं बहुमान करे छे, तेमनी आज्ञा उठावे छे, शिर नमावे छे एटलं ज नहिं पण देशनी नामांकित व्यक्तियोनां समाधिस्थानो, स्मारको अने कबरो उपर पुष्पांजलियो चढावे छे, मक्का-मदीना हज करवा जाय छ, मस्जीदमां जईने निमाज़ पढे छे, जेरुसलाम जई बप्तिस्मा ले छे अने चर्चमां माता मेरी अने जेसस्. क्राइस्टना चित्रनी सामे ऊभो रही प्रार्थना करे छे. शुं ए बधी सजीव-निर्जीव मूर्तियोनी पूजा नथी ? खरी रीते जोतां वस्तुस्थिति ए छे के मूर्तिपूजाने अंगे खास विरोध नथी पण विरोध मात्र तेनी विधिने अंगे छे अने विरोधनुं कारण Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५] मनुष्यनी असहिष्णुता छे. जो मनुष्यमां सहिष्णुता केलवाई जाय अने बीजानी कृतिने खोटी कहेवानी आदत छोडी दे तो पूजाने अंगेना ज नहिं घणी बाबतोना विरोधो स्वयं मटी जाय. मूर्तिपूजाने विषे पूर्वकालमा विरोध केम न थयो ? आपणामां जिनपूजा परापूर्वथी चाली आवे छे छतां आजथी पंदरसो वर्ष पहेला एमां थती हिंसानो कोईए विरोध कर्यों न हतो, एर्नु एक ज कारण हतुं के ते समयनी पूजापद्धति घणी सादी अने निराडंबर हती. देहरां बनतां, प्रतिमाओ बनती पण केटली सरलतापूर्वक अने अल्प व्ययमां? कोई गुफाने तोडी-फोडीने मंदिर बनावी दीधुं अने पहाडमाथी ज मूर्ति खोदी काढी ने बस मूर्ति अने मंदिर बने तैयार. गुफा श्रमणोने माटे उपाश्रयनुं काम आपती अने मूर्ति एमना वन्दनीय देव बनी जती. तीर्थंकरोनां स्मारक समां आवां मंदिरो केटलां सुखसाध्य अने समाधिजनक होतां कोई भाविक गृहधर्मी आवी जतो अने पुष्पमुष्ठि चढावी जतो अथवा धूप बत्ती उखेवी जतो. कदाच कोई वणिक न जतुं तोय एने अंगे कोईने चिन्ता नहि. ए जवात चैत्यो-प्रासादोने अंगेपण हती. कोई धनसंपन्ननी इच्छा थई अने कोई उपवनमां नदी तट उपर के कोई गिरिशिखर उपर सुन्दर चैत्य बनावी दीधुं. सुलाक्षणिक जिनमूर्ति बनावरावी, कोई ऋषि-मुनिना हाथे वासक्षेप करावी ___ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] बेसाडीएटले प्रतिष्ठा थई गई. न नित्यस्नान विलेपननी चिन्ता हती अने न पूजा करनार पगारदार गोठियोनी आवश्यकता. ___भरत चक्रवर्तीनी इच्छा थई अने अष्टापद गिरि उपर भगवान् ऋषभदेवना अग्निसंस्कार स्थान पर 'सिंहनिषद्या' चैत्य बनावी दीधुं, अने ऋषभादि तीर्थकरोनी मूर्तिओ प्रतिष्ठित करीने चिरस्थायी स्मारक बनावी पोतार्नु कतैव्य पूरु कयु. न तेनी पूजा व्यवस्था माटे कोई ग्राम ग्रास दीधो, न पूजारियोनो बंदोबस्त कर्यो. भरतना वंशज सगर चक्रवर्तीना पुत्रोए पोताना पूर्वजोनी कृतिने चिरस्थायी अने सुरक्षित बनाववा माटे तेना मार्गो दुर्गम बनाव्या अने फरती खाई खोदीने पर्वतने दुरारोह बनाव्यो पण तेना निर्वाह माटे बीजी कोई चिन्ता न करी केम के तेवी चिन्तार्नु कोई कारण ज न हतुं. कोई देव विद्याधर पहोंची जतो अने इच्छा थती तो यथेच्छ भक्ति करी लेतो, नहिं तो दर्शन तो करतो ज अने भरतनी पितृभक्ति तथा जिनम आपणा शास्त्रोना लेखानुसार नन्दीश्वर, रुचक, कुंडलादि द्वपिोमां शाश्वत चैत्यो अने प्रतिमाओगें अस्तित्व छ, अष्टातिक पर्वोना दिवसोमां के जिनकल्याणकादिना प्रसंगोमां देवासुरो के सिद्ध विद्याधरो त्यां जई उत्सवो मनावे छे, पण सदाकाल त्यां कोण पूजा करे छे एनो खुलासो शास्त्रथी मळतो नथी. देवविमानो अने भवनपतियोना भवनोमांजिन ___ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ ] चैत्यो अने जिनबिंबो बतावेल छे अने स्थाननो स्वामी नवो उत्पन्न थाय छे त्यारे चैत्यमां जाय छे अने प्रतिमाने पूजे छ पण शेष समयमा चैत्यस्थित शाश्वत बिंबोनी पूजा कोण करे छे? एनो खुलासो शास्त्र आपतुं नथी. आथी आपणे शुं समजवू जोईए ? आपणे समजबुं जोईए के आपणी प्राचीन पूजापद्धति आजना जेवी न हती, ते साची अने स्वाभाविक हती. आजनी पद्धतिमां कृत्रिमतानां बंधनो छे, भावना स्थाने फरज-कर्तव्यनी कडिओ संकलायेली छे एटले पूजकनी आत्मिक भावनाओनो विकास थई शकतो नथी. आ पवित्र कार्यथी जे लाभ थवो जोईए ते थतो नी केमके तेनी भावनाओने विमुक्त पक्षीनी जेम उड़वानो अवकाश मळतो नथी. ३-जिन पूजापद्धतिमा विकृतिनां बीजारोपण सर्वोपचारी पूजाना प्रचारनी साथे पूजाना विकासनी अंतिम सीमा हती अने ए पर्वगत कृत्यपर्वोमां ज मर्यादित रहेQ जोईतुं हतुं पण तेम रही शक्युं नहिं, समय ज एवो हतो, एक तरफ पौराणिक पद्धतिनां पगरण मंडायां हतां, बीजी तरफ जैन श्रमणो जे घणे भागे बन-उद्यानोमां रहेता हता ते धीरे धीरे वसतिवासी थई रह्या हता, वसतिमां मकानोनो तोटो पडवा मांडयो एटले नवां बनता जिनचैत्योनी हदमांज साधुओने रहेवा योग्य स्थानो बनावीने श्रमणोने माटे राखवा मांडयां. आ स्थानोथी उतरवानी समस्या घणे भागे पूरी थई गई छतां जे त्यागी श्रमणो आधाकर्मिक जाणी ___ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवां स्थानोमां उतरवु पसंद नहोता करता तेओ गृहस्थोना खाली मकानोमां अथवा तेवा प्रकारना निर्दोष स्थानोमां उतरता हता, पण आवा वसतिवासी सुविहितोनी संख्या घणी ज थोडी रहेती, मुख्य भाग चैत्योमा रहेतो हतो अने ते चैत्यवासी तरीके ओळखातो हतो. प्रारंभमां ए चैत्यवासीओ महाविद्वान् तेमज क्रियापात्र साधुओज हता पण धीरे धीरे गृहस्थोना प्रतिवन्ध अने चैत्योनी व्यवस्थामां पडतां केटलीक पेढीओने अंते वधारे पडता शिथिलाचारी थई गया हता. विक्रमना चोथा सैकाना प्रारंभथी एमनामां शैथिल्य पेसवा मांडयुं हतुं अने पांचमा सैकाना उतार सुधी एटला बधा शिथिलाचारमा गबडी पड्या हता के सुविहित साधुश्रोने एमनी साथेनो संबंध तोडी नाखवो पडयो हतो. ए बधु थवा छतांये संघमां वर्चस्व चैत्यवासिओगें हतुं, संख्याबल पण तेमनु हतुं अने विद्वत्ता पण तेमनी पासे हती. आ कारणथी विक्रमना छठा सैकाथी दशमा सैकाना अंत सुर्धाना ५१० वर्षोमां एकछत्र साम्राज्य रद्यु, आ पंचशती दर्मियान सुविहित श्रमणोनी परम्पराओ तो चालती ज हती, तेमनामां सारा सारा ग्रन्थकारो पण थता ज रह्या छे, छतांये ए कहेवु पडे छ के चैत्यवासियोनो खुल्लो विरोध करवानुं जोखम उपाडवाने कोई तैयार न हतुं, पण चैत्यवासियो पोतानी करणीथी ज धीरे धीरे नबला पडवा मांडया हता. दशमा सैका सुधीमां तेओ पर्याप्त नबला पडी गया हता, विद्वानोनी संख्या घटी हती, साथे ज संयम Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गमा अति शैथिल्य आवतां गृहस्थवर्गनो आदर घटयों हतो अने बीजी तरफ सुविहितोनी संख्या वधती जती हती, चैत्यवासनां उतरतां पाणी थई चूक्यां हतां, तो पण चैत्यवासियो त्यांसुधी तद्दन निर्माल्य नहोता वन्या. द्रोणाचार्य, पूराचार्य, थारापद्रगच्छीय शांतिसूरि जेवा प्रौढ प्रतापी विद्वान् चैत्यवासी आचार्यो दशमी शताब्दी पछीना समयमां पण पोताना नामे ओळखाता हता एटलुंज नहीं पण शासनना स्तंभ जेवा समजीने सुविहित आचार्यों पण एमनो आदर करता हता. उपर जणावेल चैत्यवासनी प्रधानतावालां पांचसो वर्षों जो के जैनाचारनी दृष्टिए पतनकालना हतां छतां आ समयमां जेटला विद्वानो पाक्या छ तेटला कालान्तरमा नथी पाक्या अने आ समयमां जेटलुं मौलिक जैन साहित्यन निर्माण थयुं छे तेटलुं बीजा समयमां भाग्ये ज थयुं हशे. सिद्धसेन दिवाकर, मल्लवादी, पादलिप्त जेवा प्रभावको, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, जिनदासगणि महत्तर जेवा भाष्य-चूर्णिकारो, सिद्धसेन गणि, याकिनीमहत्तरासूनु हरिभद्रसूरि, शीलांकाचार्य जेवा प्रसिद्ध ग्रन्थकारो आ समयनां तेजस्वी रत्नो छे. दिगम्बर संप्रदायमां आ समयमां जेटला विद्वानो थया छे अने ग्रन्थो रचाया छे तेटला बीजा कालमां रचाया नथी. श्रीपादलिप्तमूरिजीनी प्रतिष्ठापद्धति (निर्वाणकलिका), ___ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० ] वादिवेताल शान्तिसूरिजीनी 'अईदभिषेकविधि' अने वायडीय श्रीजीवदेवसूरिजीनी 'जिनस्नात्रविधि' विगेरे प्रतिष्ठा तथा जिनस्नाननी मौलिक विधिओ एज चैत्यवासप्रधान समयमां चैत्यवासियोना हाथे रचायेली छे के जे सर्वमान्य कृतिओ छे अने पाछलना समयमां बनेल ए विषयना ग्रंथकारोए ए ग्रन्थोनुं उपजीवन नथी कर्यु पण ए ग्रंथोथी यथेच्छ मार्गदर्शन मेलव्युं छे. आम एक प्रकारे तो ए समय घणो उपकारक हतो, विद्वत्तानो हतो पण श्रमण धर्मनो मार्ग आमां प्रतिदिन अव्यवस्थित थतो गयो, परिस्थिति वधु बगडतीज चाली एटले समाजनी भावना पण बदलवा मांडी, पोताना मानेला गुरुओ करतां अप्रतिबद्धविहारी सुविहित साधुओनी तरफ समाज खेचावा लाग्यो, ए वस्तु गाम गाम बद्धमूल चैत्यवासिओने माटे ईर्षाजनक हती, तेओ सुविहितोनी साथे अथडामणमां उतरवा सुधीनी हदे पण पहोंच्या छतां गृहस्थ वर्ग उपरनो प्रभाव मंद पडतां तेमनुं वजन घणुं हलकुं पडी गयुं हतुं अने अग्यारमी सदीना अन्तिम भागथी तेमनी सामे सुविहितो खुल्ला पडकार करवा मांड्या, साधुओना ए विवादोमां गृहस्थाने विभक्त थवुं पड्युं, परिणामे संघनुं बंधारण तूटीने नवा नवा गच्छो निकल्या अने नवा नवा संघो बन्या. बारमा सैकाना मध्यभागथी तेरमाना मध्यभाग सुधीना एक सो वर्षो कोई ने कोई वातना विरोधने लईने पौर्णमिक, आंचलिक, साधुपौर्णमिक, खरतर, आगमिकोए पोतपोतानी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] सामाचारीओ नवी बनावीने पोताना गच्छो व्यवस्थित कर्या अने परंपरा जुदी चलावी. प्रारंभमां आ नवा गच्छो मूल परंपराथी बहु दूर नहोता गया छतां कालक्रमे अंतर वधतुं ज गजु जे आज पर्यन्त केटलाक गच्छो तो बहु ज छेटे पडी गया छे, केटलाकनुं अन्तर मौलिक रूपमां तो नजीवू ज छ पण आगल करतां वध्युं छे, जे उदार भावना प्रकटे तो दूर करी शकाय तेम छे. गमे तेम पण चैत्यवासियोना खंडन दर्मियान केटलीक एवी परंपराओनुं पण खंडन थयुं छे के जे ठेठ पूर्वधरोना समयनी प्रामाणिक परंपराओ हती. भले चैत्यवासना पतनकाल पछी जीर्णोद्धार थया हशे पण ते संघर्ष कालथी संघy बंधारण जे तूटधुं छे तेनो आज सुधी उद्धार थयो नथी अने निकट भविष्यमां तेवी आशा पण नथी. आ चैत्यवासना इतिहासमुं प्रकरण अत्र चर्चानो मूल हेतु ए छ के-आपणी "जिन पूजापद्धति "मां विकृतिनां बजि आ कालमा रोपाणां हतां. चैत्यवासी आचार्योनो घणो भाग चैत्योमा रहेतो एटलं ज नहिं पण चैत्योना गौष्टिक मंडलोना प्रमुख तरीकेनी फरजो बजावतो, एमनी इच्छानुसार चैत्योनी व्यवस्था थती अने पूजा आदिनी व्यवस्था पण तेमना मतानुसार थती, जो के नित्यस्नान जेवी अंतिम कोटिनी विकृति तो ते समयमां पण दाखल न थई पण " सर्वोपचारी पूजा" नी अतिप्रवृत्ति तेमणे ज वधारी हती के जेना परिणामे बारमी सदीमां चैत्यवासियोनी साथे Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] घणाक सुविहितो पण नित्य स्नाननो उपदेश देवालाग्या अने धीरे धीरे पण नित्य स्नाननी प्रवृत्तिओवधवा मांडी. नित्य स्नाननां आम आंदोलनो बारमी शताब्दीना प्रारंभथी ज नित्य स्नाननु आन्दोलन प्रतिदिन वधतुं तो हतुं ज अने बारमा शतकमां एणे जोर पकडा. आचार्य श्री हेमचंद्र जेवा समर्थ उपदेशकोनो तेने टेको मल्यो अने एम कहीये तो पण अनुचित नथी के श्री हेमचंद्राचार्य जेवाओनी आगेवानीथी ज ए अधिक व्यापक बन्युं हतुं. पाटणना समृद्ध गृहस्थो अने सत्ताधारीओनो तेने साथ हतो. आचार्यश्री हेमचंद्रे योगशास्त्रनी मूल कारिकाओ तो प्रचलित प्रणालिकाने अनुसारे ज नीचे प्रमाणे बनावी "शुचिः पुष्पामिष्टस्तोत्रै-दैवमभ्यय॑ वेश्मनि । प्रत्याख्यानं यथाशक्ति, कृत्वा देवगृहं ब्रजेत् ॥ प्रविश्य विधिना तत्र, त्रिः प्रदक्षिणयेज्जिनम् । पुष्पादिभिस्तमभ्यर्च्य, स्तवनैरुत्तमैः स्तुयात् ॥" अर्थात्-घरदेरासरमां पवित्र थई पुष्प, नैवैद्य, स्तोत्रोवडे जिनने पूजीने यथाशक्ति पञ्चक्खाण करे अन पछी नगरचैत्यमां जाय. त्यां विधिथो प्रवेश करी जिनने त्रण प्रदक्षिणा करे अने पुष्पादिवडे पूजा करीने उत्तम स्तोत्रोवडे स्तवना करे. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] उपर्युक्त मूल कारिकाओमां तो आचार्ये प्राचीन प्रणालिकानुं ज अनुसरण कर्यु छे, पण टीकामां तेमणे तात्कालिक आंदोलन विषयक पोतानुं वलण सूचवी ज दीधुं. तेमणे लख्युं के "नित्यं विशेषतश्च पर्वणि स्नात्र पूर्वकं पूजा करणमिति” ; एटले के 'सदाकाल अने पर्वमां विशेषे करीने स्नात्रपूर्वक पूजा करवी.' आत्रा उपदेशोना परिणामे सुखी गृहस्थो तरफथी नित्य स्नात्रो बधतां ज गयां, जेना परिणामे श्री शांतिसूरिने सर्वोपचारी पूजानी व्याख्यामां लखवु पड्युं के 'सर्वोपचार पूजा पर्वादिकमां कराय छे, अथवा ऋद्धिमन्तो द्वारा नित्य पण कराय छे. '* आ नित्य स्नात्रनो प्रचार वधतो जोई कोई कोई आचार्योंए एनो विरोध पण कर्यो छतां तेमना विरोधने नीचेनी युक्तिओथ दबावी दीवो, तेना प्रचारकोनी युक्ति ए हती के जह मिम्मयपडिमाणं, पूआ पुष्काइएहिं खलु उचिया । कणगाइनिम्मियाणं, उचियतमा मञ्जणाई वि ॥ " अर्थात् जेम मृन्मय प्रतिमानी पूजा पुष्पादिवडे करवी * पव्वाइएसु कीरइ निचं वा इतेिहिं । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३४ ] उचित छ, तेम सुवर्णादि निर्मित प्रतिमाओनी स्नानादि पूजा उचिततम छे. आ नित्य स्नानना प्रचारकालने अन्ते संदर्भित थयेल संबोध प्रकरणमां तो तेना संदर्भकार आचार्ये "पंचोपचारी पूजा"ना उपचारोमां पण विकृति करी दीधी छे "वरकुसुमावलि-अक्खय-चंदणदव-धूव-पवरदीवहिं । पंचावयारपूआ, कायव्या वीयरागाणं ।।" अर्थात्-सुगंधी पुष्पावली १, अक्षत २, चंदनद्रव (धोल)३, धूप ४, दीपक ५, आ पांच द्रव्योथी वीतरागनी पंचोपचारी पूजा करवी. प्रचारनो केवो प्रभाव ? श्री हरिभद्रसूरिजी, चंद्रप्रभमहचरजी, शांतिसूरिजी जेवा प्रामाणिक सुविहित आचार्योए पंचोपचारीमा तेमज अष्टोपचारी पूजामां गंधपूजाने मुख्य गणी छे. श्री नेमिचंद्रसूरिजीए अनन्तनाथचरित्रान्तर्गत 'पूजाष्टक'मां 'वास' पूजा तरीके जे गंधपूजार्नु वर्णन कर्यु छे तेज 'गंध'ने उडाडीने आ कूटग्रंथ संबोध प्रकरणना संग्राहके मूलमा जे 'गंध' पूजा हती तेना स्थाने 'चंदनद्रव' पूजा लखी दीधी. आम नित्यस्नानना सर्वतोमुखी प्रचारना परिणामे नित्य स्नान-विलेपननो प्रचार सार्वत्रिक थई गयो. अमुक गच्छवालाओना. एकदैशिक विरोधो हता ते पण धीरे धीरे शांत थई गया. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५ ] नवी समस्याओ (१) गृहदेवालयोनी उठांतरी नित्य स्नान-विलेपन प्रथम सर्वोपचारी पूजामां थतुं तेम जो मूलनायक अथवा अमुक एक प्रतिमा पूरतां ज रह्यां होत तो नवी समस्याओ ऊभी न थात पण प्रचार एटले एक महानदीनो प्रवाह, एनो एक ज मार्ग रहेतो नथी, प्रचारे बधुं पोतानी अंदर समावी दीधुं. मूलनायकनुं नित्य स्नान-विलेपन अने बीजी प्रतिमाओने नहिं ? मूलनायक अधिक अने बीजा भगवान् ओछा ? आ युक्तिवादे सर्व प्रतिमाओने नित्यस्नान-विलेपनना लपेटामां लोधी अने सर्वत्र सर्व प्रतिमाओगें स्नान अने विलेपन नित्य थवा मांड्या. उपदेशकोने पोताना उपदेशनी सफलता थतां आनंद थयो. श्रीमन्त श्राद्धोने जिन भक्तिमां तन, धन खर्चवानो मार्ग जडयो पण "महाजनो येन गतः स पन्थाः " आ कथनानुसार देखादेखी-भावथी के व्यवहारथी जे पोतानी भक्तिनिभावता हता तेमने माटे आ सर्वोपचारी भक्तिनो मार्ग भारे पडया लाग्यो.नित्य प्रतिमाओ न्हवरावी, नित्य चंदन घसवां, नित्य प्रतिमाना परिकरोमां पाणी के चंदनादि न रहे एनी चिन्ता-आ बधुं तेमने माटे चिन्तानो विषय थई पडयु. परिगाम ए आव्युं के धीरे धीरे मंगलचैत्यो (घरदेरासरो) उठा लाग्यां, ज्यां प्रतिगृह मंगलचैत्य हतुं ते पाटण जेवा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] शहेरमा आजे तेमनी संख्या ३० नी आसपास आने ऊभी छे. आ नवी पूजापद्धतिनुं पहेलं परिणाम ! (२) भक्तिचैत्योमां पगारदार गोठियो हवे भक्तिचैत्यो(नगरचत्यो) नी परिस्थिति तरफ वलीए. नगरचैत्योमा पहेला मात्र बाह्य सफाई पूरती ज पगारदार माणसनी जरुर रहेती हती, पण नित्यस्नान-विलेपन फरजि. यात थवाथी प्रतिभक्तिचैत्य पाछळ १-१ अने बावन जिनालयो माटे ३-३ पगारदार गोठीओ राखवानी आवश्यकता ऊभी थई अने खर्च वध्यो अने देवद्रव्यनी वृद्धिना नवा मार्गो शोधवानो समय आव्यो. इंद्रमालोद्घाटन आदिनी उछामणीओ बोलावानो प्रचार थयो अने जेम तेम खर्चा निभवा लाग्या. (३) देवद्रव्यनी वृद्धि निमित्ते एक नवं निर्माण देहरासरोनी आर्थिक स्थिति सुधारवा माटे एकवीश प्रकारी पूजानी योजना करी आसरे २५ संस्कृत पद्योनी रचना करीन तेने 'पूजाप्रकरण' नाम आपी प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थकार श्री उमास्वाति वाचकने नामे चढावी दीधुं, पण आ वस्तु सर्वमान्य थई शकी नहिं, कोईए तेने उमास्वातिनी कृति तरीके मानीने एकवीश प्रकारी पूजानो उपदेश कर्यों तो काईए एने कल्पित जणावीने एकवीश प्रकारांना विरोधमां प्रचार कर्यो. अमोए पण उपर सूचित पूजाप्रकरण ध्यान Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ ] पूर्वक वांच्यु छ अने निश्चय कर्यों छे के ए प्रकरण उमास्वातिजीनी रचना नथी पण कोई चैत्यवासी विद्वान्नो संदर्भ छे. आ प्रकरणोक्त एकवीश प्रकारी पूजाना निर्देशो *विंशतिस्थानक विचारामृत संग्रह' तथा 'श्राद्धविधिकौमुदीमा मले छे के जे ग्रन्थोनी रचना अनुक्रमे वि० संवत् १५०२ तथा १५०६ ना वर्षमा थई छे, ए पहेलांना कोई ग्रन्थमां पूजाप्रकरणनो उल्लेख अमारा जोवामां आव्यो नथी. आ पूजाप्रकरणमा जणावेल २१ प्रकारी पूजानी योजना नीचे प्रमाणे छ"स्नानं विलेपनविभूषणपुष्पवासधूपप्रदीपफलतन्दुलपत्रपूगैः। नैवेद्यारिवसनं चर्मगतपत्र-वादित्रगीतनटनस्तुतिकोशवृद्ध्या ।। इत्येकविंशतिविधा जिनराजपूजा, ख्याता सुरासुरगणेन कृता सदैव । खण्डीकृता कुमतिभिः कलिकालयोगा द्ययात्प्रियं तदिह भाववशेन योज्यम् ॥" अर्थात्-स्नान १, विलेपन २, आभरण ३, पुष्प ४, वास ५, धूप ६, दीप ७, फल ८, अक्षत ९, पान १०, सोपारी ११, नैवेद्य १२, जल १३, वस्त्र १४, चमर १५, छत्र १६, वादित्र १७, गीत १८, नाटक १९, स्तुति २०, कोशवृद्धि २१ आप्रमाणे एकाश प्रकारी जिनपूजा प्रसिद्ध छ अने देव Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३.] दानवोना समूहवडे सदाकाल करायेली छे छतां पण कलिकालना योगथी कुमतिओए एजें खंडन करी दीधुं छे छतां जे जे वस्तु प्रिय होय तेने भाववशे पूजामां चढाववी. वाचकगणने कहेवानी भाग्येज आवश्यकता रहे छ केआ कृतिनी रचना अने छेल्लो व्यक्त करायलो आशय उमास्वातिनो नहिं पण कोई क्षुल्लक हृदयी मानवनो छे के जे स्वयं आ कृतिनी कृत्रिमता व्यक्त करे छे. (४) विलेपनने स्थाने तिलकपूजा मालोद्घाटनादिनी उछामणीओ, कोशवृद्धिना उपदेशोथी पण नित्य-स्नान-विलेपनादिना खर्चाने पहोंची वलवामां सफलता न मली एटले विलेपन उपर काप मुकायो, सांगविलेपनने स्थाने हवे अमुक अंगोमां चंदनना तलको करीने विलेपन मानी लेवानो निर्धार थयो. चौदमा सैकाना उत्त रार्धमां बधा मळीने ६ तिलको प्रचलित थया, जेनो निर्देश श्री जिनप्रभमूरिकृत पूजाविधिमां मले छ, जे नीचे प्रमाणे "सरससुरहिचंदणेण देवस्स दाहिणजाणु-दाहिणखंधनिलाडवामखंधवामजाणुलक्खणेसु हियएण सह छसु वा अंगेसु पूअं काऊग पञ्चग्गकुसुमेहि गंधवासेहिं च पूएइ ।" अर्थात-सरस सुगंधि चंदनवडे देवनी जमणा ढींचणे, जमणे खांधे, ललाटमां, डाबे खांधे, डाबे ढींचणे-आ पांच अंगोमां अथवा हृदयनी साथे छ अंगोमां पूजा करीने ताजां ___ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३९] पुष्यो अने गंधवासवडे पूजे पण उक्त पंचांग वा षडंग पूजा सर्वमान्य न थई अने ए विषयमा चर्चाओ थईने छेवटे पंदरमा सैकाना अंत सुधीमा तिलको पांच वा छ न रहेतां नव थया अने तेना स्थानो नीचे प्रमाणे निश्चित थयां. " अघ्रिजानुकरांशेषु, मूनि पूजा यथाक्रमम् । श्रीचंदनं विना नैव, पूजा कार्या कदाचन ॥१॥ नवभिस्तिलकैः पूजा, करणीया निरन्तरम् । प्रभाते प्रथमं वास-पूजा कार्या विचक्षणैः ॥ २॥ मध्याह्ने कुसुमैः पूजा, संध्यायां धूपदीपकात् ।। वामांश धूपदाहः स्यात्, जलपात्रं तु संमुखम् ॥३॥ अर्थात्-वे चरणो, बे ढींचणो, बे हाथो, बे स्कंधो अने मस्तके अनुक्रमे पूजा करवी, चंदन विना कदापि पूजा न करवी. उपर्युक्त क्रमे जमणा चरणे १, डाबा चरणे २, जमणा ढींचणे ३, डाबा ढींचणे ४, जमणा हाथे ५, डावा हाथे ६, जमणे स्कंधे ७, डावे स्कंधे ८, मस्तके ९ नव तिलकोवडे नित्य पूजा करवी. चतुर मनुष्योए वासपूजा प्रभातकाले प्रथम करी लेवी जोइये, मध्याह्नकाले पुष्पोवडे अने संध्याकालमां धूप दीपकबडे पूजा करवी. धूपपात्र भगबन्तना वाम अंगनी तरफ अने जलपात्र तेमनी सन्मुख मूकबु. " पंचामृतं तथा शान्ती, दीपः स्यात् सगुडैघृतैः। वही लवणनिक्षेपः, शान्त्यै तुष्टयै प्रशस्यते ।।" Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] अर्थात् पंचामृत स्नान तथा गोळ सहित घीनो दीवो शान्तिक कार्य माटे होय छे अने आग्निमां लवणनिक्षेप शांति तथा तुष्टिने माटे वखणाय छ. आम पंचामृत स्नानो अने लवणनिक्षेपादि क्रियाओ नैमित्तिक कर्मोमां परिगणित थई. नवांगपूजामां पण थोडोक मतभेद "कर्पूरकेसरोन्मिश्र-श्रीखंडेन ततोऽर्चनाम् । कुर्वन् जिनेशितुर्भाले, कुर्वीत तिलकं धुरि ॥ नवांगतिलको कार्या, ततः पूजा जगत्पतेः । अंहि-त्रानु-करांशेषु, शीर्षे श्रीखंडयोगतः ।।" अर्थात्-' कपूर केसर चंदनवडे ते पछी पूजा करतां सर्वप्रथम ललाटमा तिलक करे, पछी नवांग तिलकोवडे जिनेश्वरनी पूजा करवी, चरण, जानु. हाथ, खंध अने मस्तक आ नव अंगोमां केसरमिश्र चंदनवडे तिलको करीने नवांगपूजा करवी,' पूर्वोक्त नांगोमां ललाटने गण्युं छे अने त्यां नवम तिलक आवे छे, ज्यारे उपरना विधानमा नवमुं अंग शीर्ष गणीने नवम तिलक त्यां करवानुं विधान छे अने ललाटमा प्रथम वधारे खाते तिलक करवानुं विधान करेल छे. ज्यां नवी व्यवस्था थाय त्यां आवा प्रकारना मतभेदो स्वाभाविक ज होय छे. पूर्वेजिनपूजामा नित्यस्नान न होवानां प्रमाणो पर्षे जिनप्रतिमानुं नियस्नान-प्रक्षालन न हतुं, ___ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१ ] ए वस्तुने सिद्ध करनारां अनेक शास्त्रीय प्रमाणो छ. अष्टोपचारी पूजामा पूर्व स्नान-प्रक्षालन न हतुं, ए तो पूर्वे कहेवाई ज गयुं छे पण बीजा पण अनेक उल्लेखो शास्त्रोमा मले छे के जे पूर्व समयमां नित्य स्नानोनो अभाव सिद्ध करे छे. आचार्यश्री पादलिप्तमूरिजी पोतानी 'प्रतिष्ठापद्धति'मां लखे छे "ततो मासं प्रति ( एकमिति ) द्वादश स्नपनानि कृत्वा पूर्ण संवत्सरे अष्टाहि पूर्विकां विशेषपूजां विधाय दीर्घायुग्रन्थि निबन्धयेदिति ।" ___ अर्थात्-'प्रतिमास एक एवां बार स्नपनो करीने वर्ष पूरूं थया पछी आठ दिवसना उत्सवपूर्वक विशेषपूजा करवी अने दीर्घायुष्य निमित्ते गांठ बांधवी.' आचार्यप्रवर श्रीहरिभद्रसूरिजी कहे छ के "अष्टौ दिवसान् यावत्पूजाऽविच्छेदतोऽस्य कर्तव्या दानं च यथाविभवं दातव्यं सर्वसचेभ्यः॥" अर्थात्-'प्रतिमा प्रतिष्ठित थया पछी एनी आठ दिवस पर्यन्त अविच्छिन्नपणे पूजा करवी अने आर्थिक स्थिति मुजब सर्व प्राणियोने दान आप. पादलिप्तमूरिजीना उक्त उल्लेखनो भाव ए छे के-प्रतिष्ठा थया पछी दरमहिने प्रतिष्ठातिथिना दिवसे प्रतिष्ठित प्रतिमार्नु Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नपन करावq अने वर्ष संपूर्ण थया पछी अट्टाहि उत्सव करीने छेल्ली विशेष पूजा करवी. आथी शुं ए नथी स्पष्ट थतुं के मासिक बार स्नानो सिवायना दिवसो स्नान विनाना हता. जो नित्य स्नान ते वखते होत तो मासिक स्नानो लखवानी आवश्यकता न रहेत. एज रीते श्री हरिभद्रसूरिजीना समयमां जो प्रतिदिन पूजा चालु होत तो तेमने आठ दिवस पर्यंत अविच्छिन्नपणे पूजा चालु राखवानो उपदेश आपवो न पडत. श्री चन्द्रसूरिजी पोतानी प्रतिष्ठापद्धतिमां लखे छे"प्रतिष्ठावृत्तौ द्वादश मासिकस्नानानि कृत्वा पूर्णे वत्सरे अष्टाहिकां विशेषपूजां च विधाय आयुग्रन्थि निबन्धयेत् ।" ___ अर्थात्-'प्रतिष्ठा वीत्या पछी १२ मासिक स्नानोत्सत्र करावीने वर्ष पूरं थया बाद अट्टाहि उत्सव अने विशेष पूजा करीने आयुष्यनी गांठ बांधवी.' आ उल्लेखथी पण बारमी शताब्दीमां पण नित्यस्नान नियत नहोतुं थयु, एथी ज आचार्यने मासिक स्नान लखवू पडयु, अन्यथा नित्यमा मासिक स्नान आवी ज जतुं हतुं लखवानी जरूरत पडत नहि. ए ज प्रमाणे चौदमी शताब्दी सुधीमां बनेला दरेक प्रतिष्ठाकल्पोमां मासिक स्नानोनी भलामण छ पण ए पछीना कल्पोमां रुख बदली जाय छे, केमके पंदरमा सैकामां नित्यस्नान सार्वत्रिक नियमित ___ ww Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ ] थई गयुं छे एटले 'द्वादश मासिक स्नानो' लखवानी आवश्यकता रही नहि, आधी " द्वादश मासान् स्नात्रं कृत्वा " आयुं नवं विधान करवुं पड. पंदरमा सैकाना तथा ए पछीना समयमां बनेला प्रतिष्ठा कल्पोमां सर्वत्र एज प्रकारनुं विधान दृष्टिगोचर थाय छे. उक्त प्रतिष्ठाकल्पोना उद्धरणो अने जूना नवा प्रतिष्ठाकल्पोना जुदा जुदा विधानो उपरथी पण स्पष्ट थई जाय छे. के पूर्वे नित्य स्नान जेवी वस्तु विधिमां न हती पण चौदमी शताब्दी पछी दाखल थई छे. महास्नात्रोमांथी लघुस्नात्रोनी उत्पत्ति पूर्वे ज्यारे स्नान पर्वगत हतुं त्यारे विशेष पूजाओ गणत्रीनी ज थती एटले करनार तथा करावनार सर्वने माटे: आदरणीय हती, पण नित्य स्नान पछी विशेष पूजाओनो पण प्रचार वध्यो, वस्तु गमे तेवी सारी होय छतां ते खर्चाल अने श्रमसाध्य होय तो ते बधाने परवडती नथी ए स्वाभाविक छे एटले आचार्योंए महास्नात्रोनुं अनुसरण करीने लघुस्नात्रोनुं निर्माण कर्यु, पांच अथवा सात कुसुमांजलि चढावीने कलश करनारां आ लघुस्नात्रो पण पंदरमा सैकामां प्रसिद्धि पामी चूक्यां इतां एटले एनुं निर्माण ए पहेलानुं तो खरुं ज, छतां एनो प्रादुर्भाव चौदमा अने बहु तो तेरमा सेका पहेलांनो तो नहिं ज, पण आटली जूनी लघुस्नात्रविधि Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.] अमारा जोवामां के सांभळवामां आवी नथी. अमारी दृष्टिए जूनामां जूनी लघुस्नात्रविधि देवपाल कविकृत जणाई छ के जे भाषानी दृष्टिए विचारतां पंदरमा सफा पहेलांनी जणाती नथी. ए पछी अढारमा अने ओगगीसमा सफाआमां बनेली केटलीक -लघुस्नात्रविधिओ छे पण कोई प्राचीन उपलब्ध थती नथी. अष्टप्रकारीमा जलस्नाननो वधारो___ सोलमा सैका सुधीना समयमां नित्यस्नान मात्र वध्यु हतुं पण तेनी ते वखते पूजामां गणना न हती, अष्टप्रकारामां आठ द्रव्यो ते ज हतां जे अष्टोपचारीमा हतां. आ वातनो स्फोट 'आचारोपदेश'ना नीचेना शब्दोथी थाय छ "भृगारानीतनीरेण, संस्नाप्याङ्गं जिनेशितुः ।। "रूक्षीकृत्य सुवस्त्रेण, पूजां कुर्यात्तव्येऽष्टधाम् ॥" अर्थात्-नालचावाळा कलशमां भरेल. जलवडे जिनेश्वरना अंगर्नु प्रक्षालन करी, शुद्ध वस्त्रे अंगने लूछीने ते पछी अष्टप्रकारी पूजा करे. आ उपरथी स्पष्ट थाय छे के 'आचारोपदेश'ना निर्माणकाल सुधी स्नान अने जलपात्र बंने हतां केम के त्यां सुधी स्नाननी पूजामांगणना न हती. सोलमा सैकाना प्रथम चरणमां बनेल 'श्राद्धविधिकौमुदी'मां पण जलस्नान अने जलपात्र बंने छे छतां जलस्नानने पूजामां गण्डे नथी पण तेमां जलपात्र आगल मूकवानुं विधान करेल छ. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५ आभरणविधि अने चक्षुर्युगल__ मूलमां जलस्नान पर्वगत हतुं छतां धीरे धीरे नित्य कर्तव्य रूपे थई पडयुं छे, ए ज प्रमाणे आमरणविधि पण मूल मां पर्वगत सर्वोपचारी पूजानी साथे ज संबंध धरावती हती पण नित्य स्नाननी सार्थ आभरणविधिको प्रचार पण अतिशय वध्यो. आज जे देहरानी आर्थिक स्थिति सद्धर होय छे ते देहरानी प्रत्येक मूर्तिने माटे चांदीनी आंगियो तो होवी ज जोईये अने मूलनायक त्रिगडाने तो डब्बल ! एक हमेशांनी अने एक वार-तहेवारे पहरावानी. भले आ आं ओना घसाराथी प्रतिमाओ घसाय, खंडित थाय, घरफाडु लूंटारा. ओने हाथे चढे अने मुसमां गले पण आंगी तो हमेशां जोईये ज. अने प्रतिमाओने चढावातां नेत्रो ! केटलां अस्वाभाविक अने अरमणीय लागे छ ? आपणामां प्रतिमाओने नेत्र चोटाडवानुं प्रमाण आज सुधी अमने कोई शास्त्रमा मल्युं नथी, प्रतिमाना निर्माण समयमां जेवू रूप अने अंगोपांगोनुं निर्माण कराव होय तेवू थई शक छे, अने ते प्रतिमानुं जन्मजात रूप गणाय. पाछलथी कुदरती नेत्रो जेकां नेत्रो तो मूर्तिने बनेलो होय ज छे ते उपर आवां सोना-चांदी अने काचनां के कोई नंग जडेलां नेत्रो चोटाडयां ते घणांज कृत्रिम लागे छ अने सोना-चांदीना लोभथी घणे स्थले चोरो Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ उखेडीने लई पण जाय छे. अमने याद छे त्यां सुधी आजथी ५० वर्ष पहेलां आवां नेत्रोनो प्रचार नहिं जेवो हतो. पहेलां त्रांबाना नेत्रो उपर मीनारी काम करीने कुदरती नेत्र जेवां नेत्र बनतां, जे स्वाभाविक नेत्रो उपर फिट थई जतां, वार वार उखडतां नहिं अने स्वाभाविक लागतो. आजे भक्तो तो अस्वाभाविक उपनेत्रधारी बन्या पण पोताना भगवानने पण पोतानी आंखोने सारा लागता शणगारोथी शणमारीने तेमना स्वाभाविक रूपने ढांकी बेठा छे. भले नित्यना अभ्यासथी आजे आ रूप प्रिय लागतुं होय छतां आजनी अम्हारी जिनप्रतिमाओमां राज्यावस्थाना ठाठ सिवाय बीजं कई ज जणातुं नथी. जे रूप वारे-तहेवारे जोवानुं हतुं ते नित्य जोवाय छे, ज्यारे नित्य जोवानी वस्तु लगभग तिरोहित थई गई छे. वत्वजुअलंनुं चक्खुजुअलं सूत्रोक्त १७ भेदी पूजामां बीजी वस्त्रयुगलनी पूजा छे. संबोधप्रकरणोक्त १७ भेदीमा आले पण 'वत्थुजुअलं' छ पण श्राद्धविधिकौमुदीमा उद्धरेली तेवा ज भावनी गाथाओमां 'वत्थुजुअलं'ने स्थाने 'चक्खुजुअलं' दाखल थयुं छे. आ गाथाओनुप्रामाण्य गणीने ज उपाध्याय सकलचंदजीए २१ प्रकारी पूजामां त्रीजी ' चक्षुर्युगल पूजा' लखी छे. अमने तो लागे छ के '' नो 'च' पंचायाना ए गोटाला छे. 'व' ने Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७ ] कोई लेखके 'च' वांचीने ' चत्थ' करी नाख्युं पण 'चत्थ' ए तो अशुद्ध छे एम जाणी कोई संशोधके 'चक्षु करी दीघुं. युगल शब्द तो हतो ज ! बस 'चक्षुर्युगल' पूजा तैयार थई गई अने प्रतिमाओने नवां नेत्रो चढाववानो मार्ग पण आमांथी ज निकल्यो होय तो आश्चर्यजनक नथी. जो अम्हारी आ कल्पनामां कइ पेण सत्यता होय तो कहेवुं जोईये के आपणामां नेत्रो चढाववानी प्रवृत्ति संबोध - प्रकरणना संदर्भ पछीनी अने श्राद्धविधिकौमुदीनी रचना (सं. १५०६ ) पहेलांनी छ. अम्हारा आभरण विषयक विचारोथी कोईने एम लागशे के अमो भगवानने आभूषणो के आंगीओ चढे तेनो विरोध करीये छीये. खरी बात ए छे के आंगीओ अथवा आभूषणो चढावीने राज्यावस्थानुं प्रदर्शन करवुं ते उत्सव के पर्वना प्रसंगोमां शोभनारी वस्तुओं छे के जे प्रतिदिन चढावतां आ तरफनुं लोकाकर्षण घटे छे ए तो हानि छे ज, पण साधे ज हमेशां भगवान उपर आंगीओ तथा आभूषणो राखतां चैत्यवन्दन करनारे पिंडस्थ, पदस्थ, रूपरहितत्व आ त्रण अवस्थाओनी भावना केवी रीते करवी ? ए मुख्य प्रश्न उपस्थित थाय छे. आंगी अने आभूषणोमां ढंकायेल भगवानने जोईने पदस्थावस्था के रूपरहितत्वावस्थाने तो अवकाश ज नथी होतो पण पिंडस्थावस्थाना ऋण भेदो पैकीना बाल्यावस्था Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] के श्रमणावस्थानी भावनाने पण स्थान नथी, मात्र राज्यावस्थानी भावना चिन्तवीने ज रही जवू पडे छे, ज्यारे आपणा शास्त्रकारो प्रतिदिन त्रणे अवस्थाओनी भावना करवानो उपदेश करे छे. चैत्यवंदन महाभाष्यमां श्री शान्तिमूरिजी कहे छे"भावेज अवस्थतियं, पिंडत्थ-पयत्थ-रूवरहियत्तं . छउमत्थ-केवलितं, मुत्तत्तं चेत्र तस्स त्थो ॥" अर्थ-"पिंडस्थ' 'पदस्थ' अने 'रूपरहितत्व' आ त्रण अवस्थाओनी भावना करवी. आत्रण अवस्थाओना नामान्तरो अनुक्रमे छद्मस्थावस्था, केवलित्वावस्था अने मुक्तत्वावस्था छे. "उभयकरधरियकलसा, गयसुरवइपुरस्सरा तियसा । गायंता वायंता उवरि जिणेदस्स निम्मविया ॥ ठायति मणे नूणं, संपइ अम्हारिसस्स लोयस्स । जम्मणसमयपयर्ट्स, मजणमहिमासमारंभं ॥१॥ वत्थाऽऽहरणविलेवण-मल्लेहिं विभूसिओ जिणपरिन्दो। रायसिरिमणुहवंतो, भाविजइ भवियलोएण ॥२॥ अवगयकेसं सीसं मुहं च दिटुंपि भुवणनाहस्स। साहेइ समणभावं, छउमत्थो एस पिंडत्थो ॥३॥" अर्थ-बंने हाथोमां जलकलशो धारण करेल, हस्ती खंधगत इंद्र प्रमुख देवो गाता अने वादित्रो बगाडता जे जिने. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४९ ] श्वरना (परिकरमां) उपरना छत्रोटामां बतावेल छे ते अम्हारा जेवा आधुनिक मनुष्योना मनमां जन्मसमयमा थयेल मञ्जन-स्नान महिमाना समारंभना महिमाने ठसावे छे. (१) वस्त्र, आभूषण, विलेपन अने पुष्पमालाओथी विभूषित जिनेश्वरने विषे राज्यलक्ष्मीने भोगवनार तरीकेनी भव्य मनुष्योवडे भावना कराय छे. (२) केश वगरनुं मस्तक अने मुख दृष्टिगत थतां ज भगवन्तनी श्रमणावस्थाने जणावे छे (३) आ छद्मस्थावस्था अथवा पिंडस्थावस्थानो अर्थ छे अर्थात् छद्मस्थावस्थाना व्रण तत्रका छे : १ बाल्यावस्था, २ राज्यावस्था अने ३ श्रमणावस्था. " किंकिल्लि कुसुमबुड्डी, दिव्वज्झणि चमरधारिणो उभओ । सिंहासणभामंडल - दुंदुहिछत्तत्रयं चैव ॥ इय पाडिहेर रिद्धी, अणन्नसाहारणा पुरा आसि । केवलियनाणलंभे, तित्थयरपयंमि पत्तस्स ॥ " अर्थ - अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, बंने तरफ चमरधाराओ, सिंहासन, भामंडल, देवदुंदुभि, छत्रत्रय आ अनन्य साधारण प्रातिहार्य ऋद्धि पूर्वे हती ज्यारे के भगवान् केवलज्ञान पामी तीर्थंकर पदने पाम्या हता, आ पदस्थ भावना. "पलिअं कसंनिसन्नो, उडाणडिओ य किर भयवं । एए दो आयारा अरू भावे जिणवराणं ||" अर्थ- पर्यंकासने बेठेल अथवा ऊर्ध्वस्थानस्थित कायोत्सर्गमुद्रा आ बे आकारो भगवंतनी सिद्धावस्थाना छे. आ आकारोथी भगवंतनी अरूपत्व अवस्थानी भावना करवी. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "एवमवत्थाणतियं, सम्मं भावेज्ज वंदणासमये । जिणबिंबनिहियनिचल-नयणजुओ सुद्धपरिणामो॥" अर्थ-आ प्रमाणे जिनबिंब उपर दृष्टि निश्चल करीने शुभ परिणामी मनुष्ये चैत्यवंदनना समयमां सम्यक् प्रकारे अवस्थाओर्नु चिंतन कर. आजे त्रण अवस्थाओनी भावनानुं साधन नही उपर वर्णवेल अवस्थाओनी भावनानुं आजनी प्रतिमाओमां साधन रथु नथी. हस्तीओ उपर आवेल कलशधर इंद्रादिकने जोईने बंदकने जन्माभिषेकना, उत्सबर्नु स्मरण थतां बाल्यावस्थानी भावना थती, परिकरगत अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि आदि प्रातिहार्यों जोईने केवलित्वावस्थानुं स्मरण थतुं ने ते उपरथी पदस्थ भावना थती, पण नित्य स्नान - विलेपनना दुःखे परिकरो उठयां एटले प्रातिहार्यऋद्धिनुं दर्शन गर्यु एटले पदस्थ भावना पण उठी. श्रमणावस्थासूचक निकेश मस्तक रयां तेमा मस्तक तो सदाय मुकुटथी ढांक्यु ज होय अने मुख पण कुंडलादिके अलंकृत एटले श्रमणभाव तो नहिं पण राज्य. गादीए बेठेली कोई युवति राणीनी भावना तो जरूर करावे. .: अमृतत्व भावनाना बे प्रतीको पैकीर्नु प्रथम प्रतीक पर्यः कासन आजे आंगीओनां खोखांओरडे ढंकायेल होय छे. आपणामां मूलनायको तो पर्यकासनासीन ज होय एटले सदा आंगीनी सिस्टमे अमूर्तस्वावस्थानी भावनानुं प्रतीक पण तिरोहित कयु छे. ए प्रमाणे परिकरो उठी जतां अने आभरणविधि प्रचलित थतां आजे अम्हारी मूर्तियोमा राज्या Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१ ] वस्थानी भावनाना प्रतीक समां वस्त्राभरणो रही गयां छे, राज्यावस्थानी भावना जे कादाचित्क हती ते आजे मुख्य स्थाने छे ज्यारे मुख्य भावनाओ लगभग भूलाई ज गई छ. ! ए अम्हारी 'जिनपूजापद्धति'मां नित्यस्नान, नित्यविलेपन, नित्य आभरण अने आंगीओ प्रविष्ट थवानां परिणामो! सत्तरमी शताब्दीनी पूजापद्धति-- उपर आपणे जोई आव्या के सोलमी शताब्दी पर्यन्त पूजापद्धति पर्याप्त बदली चूकी हती छतां तेनी मौलिकतामां बहु अन्तर पडद्यं न हतुं, सर्वोपचारी अने अष्टोपचारीना हजी ते ज 'अष्टप्रकारो' हता, मात्र स्नान वध्यु हतुं, महास्नात्रो ओछा थईने लघुस्नात्रोनो प्रचार जरूर वध्यो हतो अने ते तत्कालीन लोकभाषामां गायनरूपे गवाती हती. पण सर्वोपचारी पूजाओ तो त्यां सुधी संस्कृत-प्राकृत पद्योमांज रचाती हती पण सत्तरमी सदीथी अष्टप्रकारी पूजामां अंतिम जलपूजा हती ते उडाडीने स्नानले ज जलपूजा मानी लेवामां आवी. बीजु सर्वोपचारी पूजाओ पण लोकभाषामां कवित्वरूपे बनारीने प्रचलित कराई. आवा प्रकारनी पूजा कृतिओमां अम्हारी दृष्टिए उपाध्याय सकलचंदजीनी सत्तरभेदी पूजा अने एक बीशनकारी पूजाओनी कृतिओ सर्वथी जूनी छे. ए पछी अढारमा अने ओगणीशमा सैकामां पण आवा प्रकारनी अनेक पूजाओनी रचनाओ थई छे अने ए परम्परा चालू ज छे. वीसमा शतकमां पण आवी गानमयी पूजाकृतिओनी रचना. ओ थई छ पण आ कालनी पूजाओमां अपवादरूपे एक वे Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५२] सिवाय घणीखरी पूजाओ भावहीन अने कवित्वहीन छे. ए सिवाय आजकालनी केटलीक पूजाओमां तो पूजावस्तुत्व ज नथी के जेनी एना रचयिताओने पण खबर नथी. परिवर्तननां परिणामो आपणे जोयुं के हजारो वर्ष पहेलांनी "जिनपूजापद्धति" घणी सुगम अने सुखसाध्य हती. ज्यारथी सर्वोपचारी पूजानो अधिक प्रचार थयो त्यारथी कंईक श्रमसाध्य अने व्ययसाध्य जरूर थई तो पण ते पर्वगत होवाथी विशेष परिणामजनक न थई, परंतु तेरमा अने चौदमा सैकाथी ज्यारे नित्यस्नानविलेपनना रूपमां ते प्रचलित थई त्यारथी सोलमी सदी सुधीमा एणे अनेक अनिष्ट परिणामो उपजाव्यां छ जे पैकीनां थोडांकनुं सूचन करीने अम्हारा आ लेखने समाप्त करीशुं. १-पूर्व समयमां ज्यारे ज्यारे स्नपननो प्रसंग आवतो त्यारे एनी खास तैयारीओ थती अने अभिषेक योग्य जलमां विविध सुगंध पदार्थो मेलबी सुगंधी बनाववामां आवतुं, नित्यस्नानना जलमां एवं कंई थतुं नथी. २-पर्वगत स्नानसमयमा प्रतिमाजी उपर जे चंदनादिनां विलेपनो थतां तेनी सुगंधीथी मंदिर ज नहि, आसपासनो प्रदेश पण महकी उठतो हतो. हवे नित्यस्नानविलेपनोमा ए पालवे तेम नथी, सादु विलेपन पण मोंधू पडतां नवांग तिलकोमा समावq पडयुं तो तेवां सुगंधी विलेपनो तो पालवे ज क्याथी ? Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३ ] ३ - स्नान' ए जन्मकालमां इंद्रोद्वारा थयेल जन्माभिषेकनुं प्रतीक गणातुं, एना प्रसंगे सेंकडो साधु-साध्वी अने हजारो भाविक गृहस्थो सेंकडो कोशोथी खेंचाईने दर्शनार्थे आवता अने आजे १ प्रक्षालन थई अंगलूंछणां थाय तेनी प्रतीक्षामां भक्तो बहार ऊभा रहे छे. आजना नित्यस्नानमां कई ज भावना जेवुं रधुं नथी. जेम वैष्णव धर्मिओमां 'स्नान' ए गृहस्थना नित्यकृत्योमां परिगणित छे ते ज प्रमाणे आजे आपणी ' प्रतिमाओना ' प्रशालने ' एक नित्यकृत्य 'नुं रूप लीधुं छे, बाकी एमां कई ज सजीवता रही नथी. ४ - पहेलां प्रत्येक जैन उपासकना घरमा मंगलचैत्य रहेतुं. सवारना उठी शुद्ध थई ते मंगलचैत्थनी गंध पुष्पादिवडे पूजा करतो अने ते पछी नगरस्थित भक्तिचैत्यमां जई भगवानने पूजतो. नित्य प्रक्षालन अने तिलकनी उपाधि वधतां तेवां मंगलचैत्यो ( घर मंदिरो ) नो व्यवहार आजे नामशेष थई गयो छे. " ५- पूर्वे जिनमंदिरोमां पूजा भक्तिनुं कार्य श्रावको पोते ज करी लेता हता. प्रत्येक जिनचैत्यनी देखरेख, व्यवस्था अने सेवाभक्तिने माटे गोष्ठी - मंडलो हतां अने तेना सभ्यो गौष्ठिक' कहेवाता. आजे प्रत्येक जिनचैत्यनी पूजा - भक्ति माटे पगारदार गोठी राखवो पडे छे. जल लाववुं चंदन घसवु, पखाल करी अंग लुछवा, अंगलूछणां धोवां, पूजानां बर्तनो धोत्रां मांजवां इत्यादि अनेक कार्यो नित्यस्नाननी पाछल वध्यां एटले पगारदार नोकरो राखवानी आवश्यकता ऊभी थई. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] ६-प्रायः पूर्वकालमा पाषाणनी के धातुनी प्रतिमा परिकरवाली ज थती पण नित्य स्नाननी खटपट वधतां परिकरो घटयां, परिणामे पूजा करनार तेमज चैत्यवंदन करनारने अवस्थाओनी भावनानां प्रतीको खलास थयां. ७-नित्यस्नाननी प्रवृत्तिए आपणी जिनप्रतिमाओने जे नुकशान पहोंचाडयुं छे तेनी तो कल्पना करतां पण हृदय कंपे छे. प्रतिवर्ष केटलीये पापाणनी प्रतिमाओ पखाल करनाराओनी असावधानीथी दृष्टीने बेकार थाय छे, प्रतिवर्ष चोवीशी अने पंचतीर्थीओना परिकरो ढीला थई वीखरीने जुदा पडे छे, एनुं कारण आ प्रतिमाओना एखाल अने अंम लुंछवानी क्रिया जोनारने समजावई पडे तेम नथी मथुराना जैनस्तूपमाथी निकलेल कुषाणकालीन प्रतिमाओ केवी घसारा वगरनी छे. लगभग बे हजार वर्षनी प्राचीन ए प्रतिमाओ लगभग १४०० वर्ष सुधी पूजाएलो छ छतां नाकनी अणी के आंगनीना नखो सुधा अणीशुद्ध छे, कारण के एमना उपर वालाकुंचीओना प्रहार के अंगलुंछणाओना घसरका लामेल नथी. वसंतगढना भोयरामांथी निकलेल वि० सं. ७४४मां भरायेल सर्वधातुनी प्रतिमाओनां नाक अने आंगलिओ जुओ केवी अणीशुद्ध छे, अंदर भरेल मसालाना झारथी क्याई क्यांई अंगमां छिद्र पडी गयी छे छतां कोई अंग-उशंगमां घसारो नथी. ए प्रतिमाओ पण ६०० वर्पथी अधिक समय सुधी पूजाया पछी ज भूमिगृह-निहित थयेली छे. आ वस्तुस्थितिनो Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार करतां आपणी वर्तमान पूजापद्धति सुंदर प्राचीन प्रतिमाओने क्यांसुधी चैत्यालयोमा रहेवा देशे ए कहेवू मुश्केल छे. मूर्तिपूजानिमित्तक सामान्य हिंसाने अंगे पूर्वे पण कई वार विशेष उठ्या हता के जेनो श्री हरिभद्रसूरि जेवा श्रुतघर आचार्योने उत्तर आपको पडयो हतो छतां ते विरोधोथी मूर्तिपूजाने कई पण नुकशान थयुं न हतुं. तेरमा सैकामां अंचलगच्छीय आचार्योए दीपक पूजानो विरोध कर्यों पण परिणाम शून्यमांज आव्युं, परन्तु सर्व प्रतिमाओना नित्यस्नान-विलेपननी पद्धति दाखल थया पछी ए अंगे थती अति प्रवृत्तिओथी लोकमानसमांजे विपरीत भावनाओए प्रवेश कयों हतो तेनो लोकाशाहना विरोध पछी स्फोट थयो. लोकाशाह कोई प्रसिद्ध वक्ता के नामांकित विद्वान तो हता नहिं के जेमनी वाणीथी लुम्ब बनीने हजारो माणसो तेमना अनुयायियो अनीने परम्परागत सरणिनो त्याग करीना कट्टर विरोधी बनी जाय, पण साधारण जनतानो घणो भाग आ धनवानोनी अति प्रतिओथी उभगी गयो हतो अने संयोगवश तेवाज समयमा लोकाशाहे साहस करी तेवा लोकोर्नु नेतृत्व स्वीकारीने मूर्तिपूजा सामे माथु उंचक्थु, तेमने टपोटप ज्यां त्यां सहायको मल्या अने तेमना प्रकारे देशव्यापी रूप धारण कर्यु, अने मूर्तिपूजाने पारावार हानि पहोंचाडी. आजे अमूर्तिपूजक जनोनी संख्या लाखोथी गणाय छे. अमारा नम्र मत प्रमाणे बारमा सकामां नित्यस्नान-विलेपनर्नु जे आन्दोलन ज्ञाधुं हतुं तेनुं सोथी अनिष्ट परिणाम छ, Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] उपसंहार -- प्रस्तुत लेखने लेखना रूपमां ज राखवानी इच्छा हती छतां एनुं कलेवर वधी गयुं अने एणे निबन्धनुं रूप धारण करी लीधुं ए विषय ज एवो रह्यो जो ओछा शब्दोमां पतावीए तो घणी बाबतो अस्पष्ट रही जवानो भय एटले एने धारणा करतां वधु लंबाववो पड्यो छे. अमारो मूल उद्देश जिनपूजाविधिनी जूनी अने नवी " पूजापद्धति" नुं दिग्दर्शन कराववानो अने कालान्तरे तेमां थयेला परिवर्तनो तथा तेनां परिणामो बताववानो हतो. वाचकगण जोशे के आ लेखमां अमे ते ज वस्तुनो स्पर्श कर्यो छे के जे अमारा उद्देशनी मर्यादामां हती. पूजानी नवी पद्धतिना अनिष्ट परिणामोनी बाबतमां अमने वे शब्दो लखवा पड्या छे ते केटलाक भाईओने अरुचि - कर लागशे ए अमे समजीए छीए पण इतिहास लेखकना मार्गमां आवा प्रसंगो तो आववाना ज. खरो इतिहास लखवो अने सत्य छुपाए वे वातो एक साथ थई शकती नथी एटले इतिहासकारने माटे ए वस्तु अनिवार्य हती. आ पूजानो इतिहास वांचनारने अम्हारी एक सूचना छे के अम्हारा अंगत विचाराने अम्हारे माटे छोडी देई आमां उद्धरेल शास्त्रीय पाठोथी स्पष्ट थती वस्तुस्थिति अने वर्तमानकालीन परिस्थितिनी तुलना करीने बने स्थितिओं विषेना गुणदोषोनुं तारतम्य जोशे तो तेमने आमांधी कई क सत्यांश जडी आवशे एवी आशा छे. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Qua Jain Education Interational e lle FOvale Eersonal use only www.ainelibrary.org