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[ ३३ ]
उपर्युक्त मूल कारिकाओमां तो आचार्ये प्राचीन प्रणालिकानुं ज अनुसरण कर्यु छे, पण टीकामां तेमणे तात्कालिक आंदोलन विषयक पोतानुं वलण सूचवी ज दीधुं. तेमणे लख्युं के
"नित्यं विशेषतश्च पर्वणि स्नात्र पूर्वकं पूजा करणमिति”
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एटले के 'सदाकाल अने पर्वमां विशेषे करीने स्नात्रपूर्वक पूजा करवी.' आत्रा उपदेशोना परिणामे सुखी गृहस्थो तरफथी नित्य स्नात्रो बधतां ज गयां, जेना परिणामे श्री शांतिसूरिने सर्वोपचारी पूजानी व्याख्यामां लखवु पड्युं के 'सर्वोपचार पूजा पर्वादिकमां कराय छे, अथवा ऋद्धिमन्तो द्वारा नित्य पण कराय छे. '*
आ नित्य स्नात्रनो प्रचार वधतो जोई कोई कोई आचार्योंए एनो विरोध पण कर्यो छतां तेमना विरोधने नीचेनी युक्तिओथ दबावी दीवो, तेना प्रचारकोनी युक्ति ए हती के
जह मिम्मयपडिमाणं, पूआ पुष्काइएहिं खलु उचिया । कणगाइनिम्मियाणं, उचियतमा मञ्जणाई वि ॥
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अर्थात् जेम मृन्मय प्रतिमानी पूजा पुष्पादिवडे करवी * पव्वाइएसु कीरइ निचं वा इतेिहिं ।
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