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[१८] के श्रमणावस्थानी भावनाने पण स्थान नथी, मात्र राज्यावस्थानी भावना चिन्तवीने ज रही जवू पडे छे, ज्यारे आपणा शास्त्रकारो प्रतिदिन त्रणे अवस्थाओनी भावना करवानो उपदेश करे छे. चैत्यवंदन महाभाष्यमां श्री शान्तिमूरिजी कहे छे"भावेज अवस्थतियं, पिंडत्थ-पयत्थ-रूवरहियत्तं .
छउमत्थ-केवलितं, मुत्तत्तं चेत्र तस्स त्थो ॥"
अर्थ-"पिंडस्थ' 'पदस्थ' अने 'रूपरहितत्व' आ त्रण अवस्थाओनी भावना करवी. आत्रण अवस्थाओना नामान्तरो अनुक्रमे छद्मस्थावस्था, केवलित्वावस्था अने मुक्तत्वावस्था छे.
"उभयकरधरियकलसा, गयसुरवइपुरस्सरा तियसा । गायंता वायंता उवरि जिणेदस्स निम्मविया ॥ ठायति मणे नूणं, संपइ अम्हारिसस्स लोयस्स । जम्मणसमयपयर्ट्स, मजणमहिमासमारंभं ॥१॥ वत्थाऽऽहरणविलेवण-मल्लेहिं विभूसिओ जिणपरिन्दो। रायसिरिमणुहवंतो, भाविजइ भवियलोएण ॥२॥ अवगयकेसं सीसं मुहं च दिटुंपि भुवणनाहस्स। साहेइ समणभावं, छउमत्थो एस पिंडत्थो ॥३॥"
अर्थ-बंने हाथोमां जलकलशो धारण करेल, हस्ती खंधगत इंद्र प्रमुख देवो गाता अने वादित्रो बगाडता जे जिने.
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