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कोई लेखके 'च' वांचीने ' चत्थ' करी नाख्युं पण 'चत्थ' ए तो अशुद्ध छे एम जाणी कोई संशोधके 'चक्षु करी दीघुं. युगल शब्द तो हतो ज ! बस 'चक्षुर्युगल' पूजा तैयार थई गई अने प्रतिमाओने नवां नेत्रो चढाववानो मार्ग पण आमांथी ज निकल्यो होय तो आश्चर्यजनक नथी. जो अम्हारी आ कल्पनामां कइ पेण सत्यता होय तो कहेवुं जोईये के आपणामां नेत्रो चढाववानी प्रवृत्ति संबोध - प्रकरणना संदर्भ पछीनी अने श्राद्धविधिकौमुदीनी रचना (सं. १५०६ ) पहेलांनी छ.
अम्हारा आभरण विषयक विचारोथी कोईने एम लागशे के अमो भगवानने आभूषणो के आंगीओ चढे तेनो विरोध करीये छीये. खरी बात ए छे के आंगीओ अथवा आभूषणो चढावीने राज्यावस्थानुं प्रदर्शन करवुं ते उत्सव के पर्वना प्रसंगोमां शोभनारी वस्तुओं छे के जे प्रतिदिन चढावतां आ तरफनुं लोकाकर्षण घटे छे ए तो हानि छे ज, पण साधे ज हमेशां भगवान उपर आंगीओ तथा आभूषणो राखतां चैत्यवन्दन करनारे पिंडस्थ, पदस्थ, रूपरहितत्व आ त्रण अवस्थाओनी भावना केवी रीते करवी ? ए मुख्य प्रश्न उपस्थित थाय छे. आंगी अने आभूषणोमां ढंकायेल भगवानने जोईने पदस्थावस्था के रूपरहितत्वावस्थाने तो अवकाश ज नथी होतो पण पिंडस्थावस्थाना ऋण भेदो पैकीना बाल्यावस्था
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