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थई गयुं छे एटले 'द्वादश मासिक स्नानो' लखवानी आवश्यकता रही नहि, आधी " द्वादश मासान् स्नात्रं कृत्वा " आयुं नवं विधान करवुं पड. पंदरमा सैकाना तथा ए पछीना समयमां बनेला प्रतिष्ठा कल्पोमां सर्वत्र एज प्रकारनुं विधान दृष्टिगोचर थाय छे.
उक्त प्रतिष्ठाकल्पोना उद्धरणो अने जूना नवा प्रतिष्ठाकल्पोना जुदा जुदा विधानो उपरथी पण स्पष्ट थई जाय छे. के पूर्वे नित्य स्नान जेवी वस्तु विधिमां न हती पण चौदमी शताब्दी पछी दाखल थई छे.
महास्नात्रोमांथी लघुस्नात्रोनी उत्पत्ति
पूर्वे ज्यारे स्नान पर्वगत हतुं त्यारे विशेष पूजाओ गणत्रीनी ज थती एटले करनार तथा करावनार सर्वने माटे: आदरणीय हती, पण नित्य स्नान पछी विशेष पूजाओनो पण प्रचार वध्यो, वस्तु गमे तेवी सारी होय छतां ते खर्चाल अने श्रमसाध्य होय तो ते बधाने परवडती नथी ए स्वाभाविक छे एटले आचार्योंए महास्नात्रोनुं अनुसरण करीने लघुस्नात्रोनुं निर्माण कर्यु, पांच अथवा सात कुसुमांजलि चढावीने कलश करनारां आ लघुस्नात्रो पण पंदरमा सैकामां प्रसिद्धि पामी चूक्यां इतां एटले एनुं निर्माण ए पहेलानुं तो खरुं ज, छतां एनो प्रादुर्भाव चौदमा अने बहु तो तेरमा सेका पहेलांनो तो नहिं ज, पण आटली जूनी लघुस्नात्रविधि
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