Book Title: Jina Pooja Paddhati
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor
View full book text
________________
"एवमवत्थाणतियं, सम्मं भावेज्ज वंदणासमये । जिणबिंबनिहियनिचल-नयणजुओ सुद्धपरिणामो॥"
अर्थ-आ प्रमाणे जिनबिंब उपर दृष्टि निश्चल करीने शुभ परिणामी मनुष्ये चैत्यवंदनना समयमां सम्यक् प्रकारे अवस्थाओर्नु चिंतन कर. आजे त्रण अवस्थाओनी भावनानुं साधन नही
उपर वर्णवेल अवस्थाओनी भावनानुं आजनी प्रतिमाओमां साधन रथु नथी. हस्तीओ उपर आवेल कलशधर इंद्रादिकने जोईने बंदकने जन्माभिषेकना, उत्सबर्नु स्मरण थतां बाल्यावस्थानी भावना थती, परिकरगत अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि आदि प्रातिहार्यों जोईने केवलित्वावस्थानुं स्मरण थतुं ने ते उपरथी पदस्थ भावना थती, पण नित्य स्नान - विलेपनना दुःखे परिकरो उठयां एटले प्रातिहार्यऋद्धिनुं दर्शन गर्यु एटले पदस्थ भावना पण उठी. श्रमणावस्थासूचक निकेश मस्तक रयां तेमा मस्तक तो सदाय मुकुटथी ढांक्यु ज होय अने मुख पण कुंडलादिके अलंकृत एटले श्रमणभाव तो नहिं पण राज्य. गादीए बेठेली कोई युवति राणीनी भावना तो जरूर करावे. .: अमृतत्व भावनाना बे प्रतीको पैकीर्नु प्रथम प्रतीक पर्यः कासन आजे आंगीओनां खोखांओरडे ढंकायेल होय छे. आपणामां मूलनायको तो पर्यकासनासीन ज होय एटले सदा आंगीनी सिस्टमे अमूर्तस्वावस्थानी भावनानुं प्रतीक पण तिरोहित कयु छे. ए प्रमाणे परिकरो उठी जतां अने आभरणविधि प्रचलित थतां आजे अम्हारी मूर्तियोमा राज्या
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58