Book Title: Jina Pooja Paddhati
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 55
________________ [१४] ६-प्रायः पूर्वकालमा पाषाणनी के धातुनी प्रतिमा परिकरवाली ज थती पण नित्य स्नाननी खटपट वधतां परिकरो घटयां, परिणामे पूजा करनार तेमज चैत्यवंदन करनारने अवस्थाओनी भावनानां प्रतीको खलास थयां. ७-नित्यस्नाननी प्रवृत्तिए आपणी जिनप्रतिमाओने जे नुकशान पहोंचाडयुं छे तेनी तो कल्पना करतां पण हृदय कंपे छे. प्रतिवर्ष केटलीये पापाणनी प्रतिमाओ पखाल करनाराओनी असावधानीथी दृष्टीने बेकार थाय छे, प्रतिवर्ष चोवीशी अने पंचतीर्थीओना परिकरो ढीला थई वीखरीने जुदा पडे छे, एनुं कारण आ प्रतिमाओना एखाल अने अंम लुंछवानी क्रिया जोनारने समजावई पडे तेम नथी मथुराना जैनस्तूपमाथी निकलेल कुषाणकालीन प्रतिमाओ केवी घसारा वगरनी छे. लगभग बे हजार वर्षनी प्राचीन ए प्रतिमाओ लगभग १४०० वर्ष सुधी पूजाएलो छ छतां नाकनी अणी के आंगनीना नखो सुधा अणीशुद्ध छे, कारण के एमना उपर वालाकुंचीओना प्रहार के अंगलुंछणाओना घसरका लामेल नथी. वसंतगढना भोयरामांथी निकलेल वि० सं. ७४४मां भरायेल सर्वधातुनी प्रतिमाओनां नाक अने आंगलिओ जुओ केवी अणीशुद्ध छे, अंदर भरेल मसालाना झारथी क्याई क्यांई अंगमां छिद्र पडी गयी छे छतां कोई अंग-उशंगमां घसारो नथी. ए प्रतिमाओ पण ६०० वर्पथी अधिक समय सुधी पूजाया पछी ज भूमिगृह-निहित थयेली छे. आ वस्तुस्थितिनो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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