Book Title: Jina Pooja Paddhati
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 57
________________ [ ५६ ] उपसंहार -- प्रस्तुत लेखने लेखना रूपमां ज राखवानी इच्छा हती छतां एनुं कलेवर वधी गयुं अने एणे निबन्धनुं रूप धारण करी लीधुं ए विषय ज एवो रह्यो जो ओछा शब्दोमां पतावीए तो घणी बाबतो अस्पष्ट रही जवानो भय एटले एने धारणा करतां वधु लंबाववो पड्यो छे. अमारो मूल उद्देश जिनपूजाविधिनी जूनी अने नवी " पूजापद्धति" नुं दिग्दर्शन कराववानो अने कालान्तरे तेमां थयेला परिवर्तनो तथा तेनां परिणामो बताववानो हतो. वाचकगण जोशे के आ लेखमां अमे ते ज वस्तुनो स्पर्श कर्यो छे के जे अमारा उद्देशनी मर्यादामां हती. पूजानी नवी पद्धतिना अनिष्ट परिणामोनी बाबतमां अमने वे शब्दो लखवा पड्या छे ते केटलाक भाईओने अरुचि - कर लागशे ए अमे समजीए छीए पण इतिहास लेखकना मार्गमां आवा प्रसंगो तो आववाना ज. खरो इतिहास लखवो अने सत्य छुपाए वे वातो एक साथ थई शकती नथी एटले इतिहासकारने माटे ए वस्तु अनिवार्य हती. आ पूजानो इतिहास वांचनारने अम्हारी एक सूचना छे के अम्हारा अंगत विचाराने अम्हारे माटे छोडी देई आमां उद्धरेल शास्त्रीय पाठोथी स्पष्ट थती वस्तुस्थिति अने वर्तमानकालीन परिस्थितिनी तुलना करीने बने स्थितिओं विषेना गुणदोषोनुं तारतम्य जोशे तो तेमने आमांधी कई क सत्यांश जडी आवशे एवी आशा छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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