Book Title: Jina Pooja Paddhati Author(s): Kalyanvijay Gani Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor View full book textPage 7
________________ नी स्पर्धा करनारी हती, यथेच्छ वृष्टि थती हती, वर्षाः कालीन ज नहीं, शीतकालीन धान्यो पण वृष्टिजलथी पाकतां हता, प्रतिग्राम नगरोनी बहार एकाधिक वनोद्यानो आवेला हतां, फलवृक्षो अने पुष्पलताओथी समृद्ध उपवनो सर्वसाधारण प्रजाजनोना उपयोगनी चीज बनेला सुरक्षित रहेतां, सुगन्धि पुष्पो अने काष्टोमांथी बनेल 'चम्पकगन्धी, उत्पल. गन्धी' आदिना नामोथी प्रख्यात सुगंधि चूर्णो, बत्तिओ अने तेलो गांधीओनी दुकानोमां विक्रयार्थ प्रस्तुत रहेतां, सुगंधी चूर्णो गंधपुडिओना रूपमा मनुध्यो पासे राखता, बत्तिओ 'सुगंधवर्ति'ना नामथी ओळखाती हती जनो धूमाडो मनुष्यो जम्या पछी सुंघता हता, तेलोनो प्रायः शीत कालमां ज उपयोग थतो. गरीबमा गरीब माणस पण आ भोगसामग्रीनो प्रतिदिन उपयोग करतो. आ हती तत्कालीन समृद्ध भारतनी भोगसमृद्धि. आ भोगसमृद्धिनो उपभोग करता जिनभक्तना मनमा भावना थई 'हुं आ सुखसाधनोनो उपभोग करुं अने म्हारा आराध्यदेव जिनेश्वर भगवानने माटे कई नहिं ?" तेना मनमा अर्पण भावना उत्पन्न थई. तेणे पोताने माटे तैयार करेल सुगंधि चूर्णनी पुडी पोताना देवने चढावी दीधी, पुष्पमाला पण देवने पहेरावी दीधी, सुगंधि वर्ति सलगावीने देवने धृप कर्यो, पोताना घरमां सारामां सारं धान्य चावल जोईने देवनी आगळ तेनी त्रण ढगलीओ करी अने पोताने त्यां प्रतिदिन Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.orgPage Navigation
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