Book Title: Jina Pooja Paddhati
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 39
________________ [३.] दानवोना समूहवडे सदाकाल करायेली छे छतां पण कलिकालना योगथी कुमतिओए एजें खंडन करी दीधुं छे छतां जे जे वस्तु प्रिय होय तेने भाववशे पूजामां चढाववी. वाचकगणने कहेवानी भाग्येज आवश्यकता रहे छ केआ कृतिनी रचना अने छेल्लो व्यक्त करायलो आशय उमास्वातिनो नहिं पण कोई क्षुल्लक हृदयी मानवनो छे के जे स्वयं आ कृतिनी कृत्रिमता व्यक्त करे छे. (४) विलेपनने स्थाने तिलकपूजा मालोद्घाटनादिनी उछामणीओ, कोशवृद्धिना उपदेशोथी पण नित्य-स्नान-विलेपनादिना खर्चाने पहोंची वलवामां सफलता न मली एटले विलेपन उपर काप मुकायो, सांगविलेपनने स्थाने हवे अमुक अंगोमां चंदनना तलको करीने विलेपन मानी लेवानो निर्धार थयो. चौदमा सैकाना उत्त रार्धमां बधा मळीने ६ तिलको प्रचलित थया, जेनो निर्देश श्री जिनप्रभमूरिकृत पूजाविधिमां मले छ, जे नीचे प्रमाणे "सरससुरहिचंदणेण देवस्स दाहिणजाणु-दाहिणखंधनिलाडवामखंधवामजाणुलक्खणेसु हियएण सह छसु वा अंगेसु पूअं काऊग पञ्चग्गकुसुमेहि गंधवासेहिं च पूएइ ।" अर्थात-सरस सुगंधि चंदनवडे देवनी जमणा ढींचणे, जमणे खांधे, ललाटमां, डाबे खांधे, डाबे ढींचणे-आ पांच अंगोमां अथवा हृदयनी साथे छ अंगोमां पूजा करीने ताजां Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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