Book Title: Jina Pooja Paddhati Author(s): Kalyanvijay Gani Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor View full book textPage 9
________________ [८] दृढतार्नु ए कारण जाणीने कालान्तरे जैन आचार्योए ए वस्तुने ग्रन्थबद्ध करीने विशेष विधिओथी व्यवस्थित करी अने गृहस्थ धर्मियो माटे आ द्रव्य पूजानो पण धर्मना अंगरूपे स्वीकार कर्यो. २. जिनपूजा-विकासना अन्तिम शिखरे पूर्व जणाव्या प्रमाणे नमन-स्तवनमाथी धीरे धीरे पंचोपकारी तेमज अष्टोपचारी पूजानो प्रादुर्भाव थयो अने असंख्य काल पर्यन्त ए बंने प्रकारनी पूजाओ पोताना सादा अने सरल रूपमां चालती रही. श्रमणसंस्कृतिना उपासको पोताना घरोमां एक खास रुम देवपूजा माटे वनावी देता अने एमना पाडोसी वैदिकर्मिओ एवी ज रीते पोताना घरोमां एक 'अग्निचित्या'ने योग्य रुम बनावता अने बहुज सादी रीते अग्निहोत्रो द्वारा पोताना वैदिक देवोनी उपासना करता हता. गोमेधो, पितृमेधो आदि हिंसायज्ञो के तेवा प्रकारना अन्य क्लिष्ट क्रियाकाण्डोनो त्यां सुधी प्रादुर्भाव नहोतो थयो. समय घणो शुभ हतो, जनसमाज सरल, साविक अने अल्पकषायी हतो, तेथी बधा सुखी अने संतुष्ट हता. लगभग ४००० वर्षो पहेलां देश-कालनी आवी स्थिति हती. पौराणिक परिभाषानुसार कलियुगनां १०००थी अधिक वर्षों बीती गयां हतां, जैन परिभाषा प्रमाणे चोथो आरो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58