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'82/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
बगीचे में मुनिराज को देखकर सुन्दरी पाद प्रहार के बिना ही अशोक विकसित हो जाता है । यह वर्णन भी प्रशान्त चित्त शोक हीन मुनिराज के दिव्य सम्पत्ति की ओर संकेत करता है । जो रम्यरूप में अवलोकनीय है
"अशोक आलोक्य पतिं ह्यशोकं प्रशान्तचित्तं व्यकसत्सुरोकम् । रागेण राजीवदृशः समेतं पादप्रहारं स कुतः सहेत ॥''58
जिसके अन्त:करण में ज्ञानरूप दीपक प्रकाशमान है । पाप विनाशक ऐसे मुनिराज को. पाकर कदम्बवृक्ष जडता से शून्य हो पुष्पों से परिपूर्ण हो पुष्टता को प्राप्त हो रहा है । अर्थात् अत्यन्त प्रसन्न हो रहा है । यह भी वर्णन मुनिराज के विभूति का प्रतीक ही है । यथा
“यस्यान्तरङ्गेऽद्भुतबोधदीपः पापप्रतीपं तमुपेत्य नीपः । स्वयं हि तावजडताभ्यतीत उपैति पुष्टिं सुमनऽप्रतीतः ॥''59
यतिपति मुनिराज भय के शत्रु एवं निश्चल हैं । उनके अगणित गुण विश्व में व्याप्त हैं जो समादरणीय एवं संसार के नाशक (निवर्तक) बताये गये हैं । यह उक्ति भी शान्ति की प्रारम्भिक भूमिका को सहयोग प्रदान करती है जो निम्न रूपों में बड़े ही मनोरम ढंग से चित्रित है -
"यतिपतेरचलादरदामरेः सुरुचिरा विचरन्ति चराचरे ।। अगणिताश्चगुणा गणनीयतामनुभवन्ति भवन्ति भवान्तकाः ॥60
यतिवर (मुनि) को जगत् तिलक बताया गया है । तीनों लोकों के लिये तिलक की भाँति वे शिरोमणि हैं । यह संकेत भी उन्नत जीवन का परिचायक है । जिन्हें देखकर जयकुमार ने मनोमलिन्य का त्याग कर दिया अर्थात् अन्त:करण से कालुष का परिणामभूत संकल्पविकल्पात्मकरूप का त्याग किया एवं अज्ञानान्धकार जयकुमार से दूर हुआ । अतएव प्रसन्नचित्त हो जगत् मित्र ऋषिराज के पास उस प्रकार पहुँचे जिस प्रकार चन्द्रमा कृष्णपक्ष को त्यागकर समुद्र को हर्षित करने वाला शुक्ल पक्ष को प्राप्त होता है। ऋषिराज का सम्पर्क जयकुमार के लिये केवल अभ्युदय का सूचक ही नहीं अपितु जीवन के दिव्यशान्ति सन्देश हेतु ही है । यथा -
"श्यामाशयं परित्यज्य राजा हर्षितमानसः । संश्रित्य जगतां मित्रं शुक्ल पक्षमिहाप्तवान् ॥61
जयकुमार ने यह कहा कि हे भगवन् । आज आपके दर्शन से मैं पाप रहित हो. रहा हूँ अतएव यह संसार समुद्र अब मेरे लिये चुल्लू के समान प्रतीत हो रहा है । अतएव मैं अगस्त ऋषि के साथ तादात्म्य प्राप्त कर रहा हूँ। यह कथन महाकवि ने अपने अभीष्ट ग्रन्थ में प्रसाद गुण सम्पन्न रम्य शब्दावलियों से कहा है -