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*150/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
ध्वनिकाव्य के भेदों का परिगणन करने से पूर्व ध्वनि के सम्बन्ध में कुछ विचार कर लेना आवश्यक है । ध्वनि शब्द 'ध्वन् शब्दे' से उणादि इ प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है । वैयाकरणों ने प्रधानभूत स्फोट रूप व्यङ्ग्य के व्यंजक शब्द के लिये ध्वनि शब्द का व्यवहार किया है । नागेश भट्ट ने लिखा है- 'पूर्वपूर्ववर्णानुभवाहित संस्कार सचिवेनान्त्य वर्णानुभवेनाभिव्यज्यते स्फोटः इति । आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार ध्वनि शब्द का व्युत्पत्तिमूलक पाँच अर्थ है
1. ध्वनति यः स व्यञ्जकः शब्दः ध्वनिः - जो ध्वनित करे वह व्यंजक शब्द ध्वनि है। 2. ध्वनति ध्वनयति वा यः सः व्यञ्जकोऽर्थः ध्वनिः - जो ध्वनित करे या कराये वह व्यंजक अर्थ ध्वनि है।
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3. ध्वन्यते इति ध्वनिः - जो ध्वनित किया जाये वह ध्वनि है। इसमें रस, अलङ्कार और वस्तुरूप विविध व्यङ्ग्य आते हैं ।
4. ध्वन्यते अनेन इति ध्वनिः - जिसके द्वारा ध्वनित किया जाय, वह ध्वनि है । इससे व्यंजनाशक्ति को समझना चाहिए ।
5. ध्वन्यते ऽस्मिन्निति ध्वनिः - जिसमें रस, अलङ्कार और वस्तु ध्वनित हो अर्थात् व्यङ्ग्यप्रधान काव्य ध्वनि है ।
इस प्रकार आलङ्कारिकों ने ध्वनि शब्द का प्रयोग पाँच भिन्न-भिन्न परन्तु परस्पर सम्बद्ध अर्थों में किया है
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ध्वनि मार्ग का अवलम्बन करने से कविप्रतिभा आनन्त्य को प्राप्त होती है । प्राचीन भावों या अर्थों को ग्रहण कर लिखी गयी कविता ध्वनि के संस्पर्श से नूतन चमत्कार की उत्पादिका होती है । जिस प्रकार बसन्त ऋतु में नवीन पल्लव एवं पुष्पों के उद्गत से सब वृक्ष नये से प्रतीत होने लगते हैं, उसी प्रकार काव्य में रस के द्वारा पूर्वदृष्ट पदार्थ भी नये की तरह दिखायी पड़ने लगते हैं ।
ध्वनि के भेद :
ध्वनि के अनन्त भेद बताये गये हैं । फिर भी मुख्यतः लक्षणामूल ध्वनि एवं अभिधामूल ध्वनि (अविवक्षितवाच्यविवक्षितान्यपर्वाच्य) के भेद से दो प्रकार के बताये गये हैं । उनमें अविवक्षितवाच्यध्वनि को अर्थान्तरसंक्रमित वाच्य एवं अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य के भेद से दो प्रकार का कहा गया है ।
विवक्षितान्य पर वाच्य ध्वनि के असंलक्ष्य क्रम व्यङ्ग्य एवं संलक्ष्य क्रम व्यङ्ग्य के भेद से दो भेद कहे गये हैं ।
असंलक्ष्य क्रम व्यङ्गय ध्वनि के भीतर रस, ध्वनि, भावध्वनि, रसाभास, भावाभास,