Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kailash Pandey
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra

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Page 212
________________ 180/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन इस प्रकार तत्त्वौचित्य का निरूपण पूर्णरूप में किया गया है । 18. सत्त्वौचित्य : सत्त्वौचित्य के विषय में औचित्य विचार चर्चा में क्षेमेन्द्र ने कहा है कि जिस प्रकार विचार करने पर सुन्दर प्रतीत होने वाला सज्जनों का उदात्त चरित्र चमत्काराधायक होता है, उसी प्रकार सत्त्व (अन्तरबल) के अनुरूप वर्णन से कवि की सूक्ति भी अपूर्व चमत्काराधायक होती है " । जयोदय महाकाव्य में सत्त्वौचित्य का विवेचन बहु स्थलों में दर्शनीय है I जयकुमार के हृदय में जिनदेव के प्रति भक्ति अन्त:करण में पहले से ही निहित है । गृहस्थाश्रम में प्रवेश होने पर यद्यपि उसे पूर्वतया उद्बुद्ध होने का अवसर नहीं मिला परन्तु गृहस्थाश्रम जीवन के कतिपय लक्ष्य पूर्ण होने के पश्चात् ही वह अन्तःकरण का उद्रेक अपने स्वरूप में समृद्ध हो गया । अतएव शान्त के अङ्कुर, अङ्कुर ही नहीं रहे किन्तु पुष्पित, पल्लवित और फलित होकर यथार्थ सत्त्वौचित्य का परिचय दे दिये, जिसका उद्धरण अनन्त है तथापि यहाँ, स्थाली पुलाक' न्याय से दिया जा रहा है। जैसे सर्ग 25 में चतुर्थ श्लोक इस औचित्य के लिये पर्याप्त है - "युवतयो मृगमञ्जुललोचनाः कृतरवाद्विरदामदरोचनाः । लहरिबत्तरलास्तुरगाश्चमू समुदये किमु दृक् झपनेऽप्यमूः ।। 80 प्रकृत पद्य में जयकुमार के हृदय इस भाव को व्यक्त कर रहे हैं कि सारे वैभव शत्रु सदृश हैं। यह सम्पूर्ण दृश्य पदार्थ नश्वर अध्रुव है। नेत्र के बन्द होने पर मृगाक्षी युवतियाँ, मत्त हाथी, चंचल घोड़े और सेवाएँ ये सब क्या अभ्युदय के लिये हो सकती हैं ? अर्थात् नहीं । प्रकृत पद्य में य ज एवं कोमल वर्ण विन्यास संयुक्ताक्षरों की अल्पता शान्तरस की पुष्टि हेतु समुचित रचना का औचित्य परिपूर्ण है । 19. अभिप्रायौचित्य : इस औचित्य को व्यक्त करते हुए आचार्य क्षेमेन्द्र ने कहा है कि जिस प्रकार निश्छल हृदय से उत्पन्न नम्रता आनन्दित करती है, उसी प्रकार सरलता से अभिप्राय के बोधक कथन ( काव्य ) सज्जनों के चित्त को आनन्दित करते हैं 1 । जयोदय महाकाव्य के एक सर्ग में ही नहीं अपितु अन्यत्र भी अभिप्राय बोधन में समर्थ बहुत से पद्य पड़े हुए है । इसलिए इसका उदाहरण दिखाना सूर्य कों दीपक दिखाना है तथापि 'स्थाली-पुलाक' न्याय से एक उदाहरण दिया जा रहा है । यथा - " विल्वफलानि विलोक्य सहर्षं निजोरोजमण्डलं ददर्श । सहसा तानि तथैव सुयोषा पुनरपि द्रष्टुमभूदपदोषा ॥ नेशायामुनि वल्लभानि तव कुचकुम्भवदियानिदानीम् । भेटोऽस्तीति समाह वयस्या सदभिप्रायवेदिनी तस्याः ||'' 1182

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