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228 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन इत्ययमर्थो लभ्यते इति नानर्थकम् । तदाह
"स्याद्वादः सर्वथेकात्त त्यागात् किं वृत्त चिद्विधेः । सप्तभङ्गि नयापेक्षा हे यादेय विशेषकृत् ॥” इति
स्याद्वाद को अङ्गीकार करने वाले यह कहते हैं कि इस सिद्धान्त से सर्वत्र विजय है। हेमचन्द्र प्रणीत 'वीतरागस्तुति' के टीकाकार आचार्य मल्लिषेण अपनी स्याद्वाद मंजरी में इस प्रकार कहते हैं कि -
"अनेकान्तात्मकं वस्तगोचरः सर्वसंविदाम् । एकं देशविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयोमतः ॥ न्यायानामेक निष्ठानां प्रवृत्तौ श्रुतवम॑नि । संपूर्णार्थविनिश्चापि स्याद् वस्तु श्रुतमुच्यते ॥" इति
स्याद्वाद के सिद्धान्त में प्रत्यक्ष-अनुमान दो प्रमाण है । सभी वस्तुएँ नित्य और अनित्य हैं । विभिन्न मतों के अनुसार सात या नौ तत्त्व माने गये हैं । उसका विवेचन यहाँ अपेक्षित नहीं है, विषय का कलेवर ही विस्तृत हो जायेगा । इसके लिये जिज्ञासु जन हेतु 'स्याद्वाद मंजरी' दर्शनीय है । भैक्षशुद्धि :
भिक्षा के बयालिस दोषों से मुक्त नित्यरूप से अदुषित जिस अन्न को मुनिजन ग्रहण करते हैं वह पवित्र भिक्षा मानी गयी है । उसी को एषणा समिति भी प्रकारान्तर से यह कह सकते हैं । यथा
"द्विचत्वारिशंता भिक्षादोषैर्नित्यमदूषितम् ।
मुनिर्यदन्नमादत्ते सैषणासमितिर्मता ॥" इति । चौदह गुणस्थान :
मोह और योग के निमित्त से उत्पन्न आत्मा के भावों को गुणस्थान कहते हैं । वे चोदह हैं -
(1) मिथ्यादृष्टि, (2) सासादन, (3) मिश्र, (4) अविरत सम्यग्दृष्टि (5) देशविरत, (6) प्रमत्तसंयत, (7) अप्रमत्तसंयत (8) अपूर्वकरण, (9) अनिवृत्तिकरण, (10) सूक्ष्मसाम्पराम (11) उपशान्त मोह (12) क्षीण मोह, (13) सयोग-केवली (14) अयोग केवली" ।
तत्त्वार्थ सूत्र में भी इसका विवेचन नवम अध्याय में हुआ है । अनुयोग :
श्रुतस्कन्ध के चार महा अधिकार वर्णित किये गये हैं उनमें पहले अनुयोग का नाम प्रथमानुयोग है । प्रथमानुयोग में तीर्थंकर आदि सत्पुरुषों के चरित्र का वर्णन होता है । दूसरे
मार