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सप्तम अध्याय /181 प्रकृत पद्य में यह वर्णन किया गया है कि कोई सुन्दरी नायिका विल्वफल को देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने वक्षस्थल मण्डल को सहसा देखने लगी और दोष शून्य अपने को समझी । इतने ही में उसके अभिप्राय को जानकर उसकी सखी कह रही है कि तुम्हारे कुचकुम्भ और इस विल्वफल में इतना ही अन्तर है कि इस समय विल्वफल तुम्हारे प्रियतम को अभीष्ट नहीं हैं किन्तु तुम्हारा कुचकम्भ अभीष्ट है ।
यह वर्णन अत्यन्त सरल शब्दों में किया गया है जो अभिप्राय को स्पष्ट करने में सक्षम है । शब्द विन्यास भी उसी के अनुसार मनोहारी है । 20. स्वभावौचित्य : आचार्य क्षेमेन्द्र ने कहा है कि जिस प्रकार कृत्रिमता रहित स्त्रियों का
अनन्य साधारण सौन्दर्य विशेष चमत्काराधायक होता है, उसी प्रकार काव्यों के लिये स्वभावानुरूप वर्णन अधिक शोभाधायक होता है । जयोदय महाकाव्य में स्वभावौचित्य से सम्बन्धित एक पद्य की झाँकी प्रस्तुत है - "धवसम्भवसं श्रवादितो गुरुवर्गश्रितमोहतस्ततः । नरराज वशादशात्मसादपि दोलाचरणं कृतं तदा ।।''84
प्रकृत श्लोक में यह वर्णन किया गया है कि पति जयकुमार के प्रति उत्पन्न हुआ प्रेम एवं माता-पिता गुरुजनों के सम्पर्क से उत्पन्न हुआ मोह होने से राजकुमारी सुलोचना की दृष्टि दोनों ओर आ-जाकर हिडोले का आचरण करने लगी। - यहाँ स्वाभाविक रूप दिखाया गया है कि जन्मकाल से माता-पिता के प्रति उत्पन्न हुआ प्रेम त्याग काल में मोह उत्पन्न करता ही है तथापि जयकुमार को पति रूप में पाकर तत्सम्बन्धी उत्पन्न हुआ प्रेम भी सुलोचना के अन्तः करण में बैठा हुआ है । इन दोनों स्थितियों में इसकी दृष्टि कभी जयकुमार की ओर कभी माँ-पिता की ओर दौड़ रही है । यह वर्णन स्वाभाविक है । अतएव स्वभावौचित्य से यह आक्रान्त है । 21. सार संग्रहौचित्य : सार संग्रहौचित्य के प्रदर्शन में औचित्य विचार चर्चा ग्रन्थ निर्माता . का कथन है कि सार संग्रहौचित्य काव्य के द्वारा सुनिश्चित फल परक काव्य पदार्थ
उस प्रकार दिखाया जाता है, जिस प्रकार शीघ्रकारी व्यक्ति के द्वारा कोई व्यापार किया जाता हो अतएव यह किसको प्रिय नहीं ? अर्थात् सबको प्रिय होता है ।
जयोदय महाकाव्य के छब्बीसहवें सर्ग में श्लोक संख्या 73 से 77 तक इसका प्रदर्शन किया गया है । जिसमें स्यादवाद सिद्धान्त ग्रहण के योग्य है त्याज्य नहीं । यह व्यक्त किया गया है विश्वमात्र के लिये यह संजीवन एवं उपकारक है । इस तथ्य को दिखाने के लिये आदिम तीर्थनाथ की वन्दना के द्वारा आरम्भ किया गया है जो इस प्रकार कहा गया है किआश्चर्य है कि इन्द्रादि देव भी तुम्हारी गुणगाथा का गान करते हैं आपकी जय हो । संसार के मित्र अर्थात् पितामह यथार्थ पवित्र तत्त्व का निर्देश आपने किया ।