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सप्तम अध्याय / 187 अट्ठाईस सों में की गयी है । महाकवि का पाण्डित्य सतत संस्तवनीय है, फिर भी कहींकहीं शब्द शास्त्र प्रतिकूलता एवं अलङ्कार शास्त्र मर्यादा की अतिक्रान्तता भी देखने को मिलती है । यथा1. च्युतसंस्कृति दोषः इस महाकाव्य में 'पुनीत' शब्द बहुशः स्थलों में प्रयुक्त है, जो सुबन्त
के रूप में सर्वथा निन्द्य है । क्योंकि पु, पावने धातु से क्त प्रत्यय करने पर पुत रूप बन सकता है । 'पुनीत' लट् लकार में तस प्रत्यय के यहाँ 'पूना' प्रत्यय करने पर पुनीतः
रूप बनेगा । महाकवि के महाकाव्य से कतिपय पद्य अवधेयार्थ प्रस्तुत हैं - (क) "गुणैस्तु पुण्यैकपुनीतमूर्तेः जगन्नगः संग्रथितः सुकीर्तेः ।
कन्दुत्वमिन्दुत्विऽनन्यचौरे रुपैति राज्ञी हिमसारगौरेः ॥"107 (ख) "सम्विदम्बर इहात्मिभिः किणधारिणः किल पुनीतपक्षिणः ।
स्वैरमाविहरतोऽस्य दक्षतां शिक्षितुं स्वयमपूरिपक्षता ॥"108 (ग) “असौ कुलीनापि पुनीतभावाच्चेतश्चुरा वा पटुता तुला वा ।
श्रीव्यंजनस्फीतिमतीव देहान्तस्थोव्भवृत्तेति पुनर्ममेहा ॥''109 (घ) "नवारितामाप पुनीतकेश्या दत्वा दृशं कौतुकतोङ्गकेऽस्याः ॥110 (ङ) “प्राच्या परावृतपुनीतरदच्छ दाया ॥111
ऐसे ही निम्नस्थ श्लोक में 'मानि' ह्रस्व इकारान्त का प्रयोग किया गया है जबकि 'मानी' इस प्रकार दीर्घ ईकारान्त का प्रयोग होना चाहिए। यथा
"न चातुरोप्येष नरस्तदर्थमकम्पनं याचितवान् समर्थः ।।
किमन्यकैर्जीवितमेव यांतु न याचितं मानि उपैति जातु ॥112 2. सन्धि की न्यूनता : 'सम्भवन्ति अरदा' यहाँ सन्धि प्राप्त होने पर सन्धि नहीं की गयी
है अन्यथा 'सम्भवन्त्यरदा' ऐसा प्रयोग होता । इससे शब्द विन्यास में कवि बुद्धि वैकल्पता प्रतीत होती है । जैसे -
"नाथ नाथ विपदा विपदा मे सम्भवन्ति अरदादरदा मे ।
सोऽयमत्र भवतो ह्यनुभावः शीतगावपि रवेरिव गावः ॥"113 3. अप्रयुक्त दोषः जयोदय महाकाव्य से उद्धृत निम्नलिखित श्लोक में 'किण' शब्द का प्रयोग 'यश' अर्थ में किया गया है, जो अप्रयुक्त दोष ग्रस्त है । उदाहरण"विधुदीधितिवन्धुराधरावलये व्याप्तिमती मनोहरा । नृपतेऽस्तु मुदे नदीकिणस्थिरतेवाग्रिमवर्षपत्रिणः ॥'114 इसी प्रकार कुछ उदाहरण अप्रयुक्त दोष के प्रस्तुत हैं