Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kailash Pandey
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra

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Page 209
________________ सप्तम अध्याय/177 11170 को ही अपना धर्म बनाया, जो महाकाव्य में निम्नरूप में अभिव्यक्त है, "स्फोट यितुं तु कमलं कौमुदं नान्वमन्यतः । सानुग्रह तयार्ह न्तमुपेत्यासीत्तपोधनः इसी प्रकार आगे के श्लोक में यह वर्णन है कि - "सहसा सह सारेणा - पदूषणमभूषणम् । जातरूपमसौ भेजे रेजे स्वगुणपूषणः ॥71 सहसादुषणों से दूर और भूषणों को परित्यागकर अपने स्वाभाविक गुणों के द्वारा सूर्य की भाँति सुवर्ण प्राप्त करने में प्रवृत्त हुआ । अन्यत्र श्लोकों में यह औचित्य विलक्षण है । यथा"सदाचारविहीनोऽपि सदाचारपरायणः । स राजापि तपस्वी सन् समक्षोऽप्यक्षरोधकः ॥ हे रयैवेरयाव्याप्त भोगिनामधिनायकः अहीनः सर्पवत्तावत्कञ्चुकं परिमुक्तवान् ॥72 इसमें कहा गया है कि यह गुप्तचरों से हीन होकर सज्जनों के आचरण में तत्पर हुआ राजा होकर भी तपस्वी बना एवं जितेन्द्रिय वनकर समदृष्टि का व्यवहार करता हुआ जिस प्रकार सर्पराज केंचुल का परित्याग करता है, वैसे ही विलासियों का अधिनायक भी जयकुमार ने कंचुक अर्थात् राज्य के वेश एवं अनुचरों का परित्याग कर दिया । इस प्रकार जयकुमार का यह कुलौचित्य व्यक्त किया गया है । 16. व्रतौचित्य : काव्य का पदार्थ अनुकूल व्रताचरण के महत्त्व से प्रशंसनीय होकर सहदयों के हृदय को प्रसन्न करता है । जयोदय के 27वें सर्ग में समदृष्टि के विवरण में व्रतौचित्य का स्वरूप जयकुमार के सम्बन्ध में इस प्रकार दिया गया है जो निम्न पंक्तियों में अवलोकनीय है - "साम्ये समुत्थाय धृतावधान इष्टेऽप्यनिष्टेऽपि कृतावसानः । अबुद्धिपूर्वं च समुत्थमागः संशोधयत्यध्वविदस्तरागः ॥174 इस पद्य में वर्णन है कि वह जयकुमार अभिष्ट और अनभिष्ट दोनों दृष्टियों में साम्य मार्ग पर आरूढ़ होकर (सावधान होकर) उपासीन बना। राज का परित्याग कर मार्ग वेत्ता वह अज्ञान पूर्वक उत्पन्न अपराध का परिमार्जन करने लगा। स्वभावतः हुए अपराधों का परिमार्जन तथा इष्टानिष्ट रूप से विरक्त होना यह उत्तरोत्तर व्रत की उत्कृष्टता का परिचायक है।

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