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148/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
इसी प्रकार इसी सर्ग के अन्यत्र श्लोकों में भी लाटी की योजना मनोहारी है"विद्याधृतां कम्पवतां हृदन्तः किरीटकोटेर्मणयः पतन्तः । देवैर्द्विरुक्ता रभसात्समन्तयशोनिषे वैर्ज यमाश्रयन्तः
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यहाँ यह वर्णन किया गया है कि युद्ध भूमि में जयकुमार के बाण जब आकाश से स्वर्ग तक पहुँचे तो हृदय से काँपते हुए विद्याधरों के मुकुटों के अग्रभाग से गिरती हुई मणियाँ जयकुमार के यश का गान कर रही थी जो देवताओं के स्तुति से दुगुनी होकर जयकुमार को सुशोभित कर रही थी ।
इसमें म-प, न-त आदि वर्ण वैदर्भी के पोषक तथा द्वि-व-भ-स-म आदि अनेकशः वर्ण पाञ्चाली के प्रकाशक होने से दोनों का समूह एकत्र होने के कारण लाटी रीति का रचना रम्य है ।
यहाँ मैंने रीतियों को दिङ्मात्र ही दर्शाने का प्रयास किया है । पूर्ण बोध के लिये तो काव्य ही अवगाहनीय है ।
जयोदय महाकाव्य में ध्वनि विवेचन
ध्वनि का सामान्य परिचयः
वाणीभूषण ब्रह्मचारी भूरामल शास्त्री के जयोदय महाकाव्य में काव्योचित चमत्कार की पर्यालोचना के प्रसङ्ग में ध्वनि विमर्श के पूर्व काव्य के स्वरूप और उसके भेदों क संक्षिप्त परिचय अप्रासङ्गिक न होगा । मम्मट के 'तद्दोषौशब्दार्थौ समुणावनलंकृती पुन: क्वापि ' इस काव्य लक्षण का कतिपय आलङ्कारिकों ने खण्डन किया है, परन्तु बाद के आलङ्कारिकों ने इस खण्डन का भी खण्डन कर इसी लक्षण को समीचीन माना । अधिकांश आचार्यों में शब्द और अर्थ दोनों में काव्यत्व स्वीकार किया है। आचार्यों के वचन निम्नलिखित हैं
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" शब्दार्थौ सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं वा तद् द्विधा ।'
" शब्दार्थौ काव्यम् ।"52
"काव्यशब्दोऽयं गुणलङ्कारसंस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्तते । 53 'अदोषौ सगुणौ सालङ्कारौ च शब्दार्थों काव्यम् ।' '54 " शब्दार्थौ निर्दोषौ सगुणौ प्रायः सलङ्कारौ च काव्यम् 1'55 "गुणालङ्कार सहितौ शब्दार्थौ दोष वर्णितौ " शब्दार्थों वपुरस्य तत्र विबुधैरात्माभ्यथापि ध्वनिः । इससे यह स्पष्ट होता है कि अधिकांश विद्वानों के मत में शब्दार्थ युगल में ही व्यासज्यवृति से काव्यत्व प्रतिष्ठित है । शब्द के अर्थ तीन प्रकार के होते है- वाक्य, लक्ष्य, व्यङ्गच
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