Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kailash Pandey
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra

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Page 202
________________ 170/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन 7. क्रियौचित्य : क्रियौचित्य के बिना काव्य में दोष झलकने लगता है । इसलिये क्रियौचित्य पर अवहित होना आवश्यक होता है। आचार्य क्षेमेन्द्र ने कहा है - जिस प्रकार सज्जनों के गुण दया, दाक्षिण्य, व्यवहार, कुशलता और साधुता तभी अच्छे माने जा सकते हैं, यदि उनके कर्तव्य सर्वदा औचित्य से पूर्ण हों । उसी प्रकार काव्य के माधुर्य, ओज आदि रम्य गुण तभी सुशोभित होते हैं जब वे व्याकरणानुसार शब्द शुद्धि आदि समन्वित क्रियापद के औचित्य से युक्त हों। जयोदय महाकाव्य में इसके अनेक उदाहरण प्रस्तुत हैं - "नन्दीश्वरः सम्प्रति देवदेव पिकाङ्गना चूतक सूतमेव । वस्वौकसारार्क मिवात्र साक्षीकृत्याशु सन्तं मुमुदे मृगाक्षी ॥ अध्यात्मविद्यामिव भव्यवृन्दः सरोजराजिं मधुरां मिलिन्दः । प्रीत्या पपौ सोऽपि तकां सुगौर गात्रीं यथा चन्द्रकलां चकोरः ॥143 यहाँ बताया गया है कि सुलोचना सज्जन जयकुमार को देखकर उसी प्रकार प्रसन्न हुई, जिस प्रकार नन्दीश्वर (अष्टम द्विप) को देखकर देवता, आम्रमंजरी को देखकर कोकिल, सूर्य को देख रजनी प्रसन्न होती है । जय भी सुलोचना को इस प्रकार पान करने लगा (देखने लगा) जिस प्रकार भव्य जीवों का समूह अध्यात्म विद्या को भ्रमर कमल पंक्ति को, चकोर चन्द्रकला को पाकर प्रेम से पीता है (प्रसन्न होता है)। ___ उक्त दोनों पद्यों में क्रमशः 'मुमुदे और पपौ' क्रिया का प्रयोग किया गया है, जिसका प्रत्येक के साथ उचित समन्वय रूप क्रियौचित्य का प्रतिपादन करता है । 8. कारकौचित्यः कारकौचित्य के सम्बन्ध में आचार्य क्षेमेन्द्र ने कहा है कि जिस प्रकार सदवंश से अलंकृत ऐश्वर्य और उदारता आदि सच्चरित्र से ही सुशोभित होता है, उसी प्रकार अनुनय आदि से युक्त वाक्य रूप काव्य भी उचित कारक के प्रयोग से ही सुशोभित होता है । कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण प्रभृति भेद से 7 कारक कहे गये हैं अतः इसके भेद और उदाहरण भी अनेक बन जाते हैं । जयोदय महाकाव्य में इसके उदाहरण खोजने नहीं पड़ते हैं, सर्वत्र व्यापक रूप में उपलब्ध हैं । (अ) कर्तृ पदौचित्यः जयोदय महाकाव्य में कर्तृपदौचित्य पदे पदे हृदयग्राही हैं, जिसके एक उदाहरण पर दृष्टिपात करें"प्राणा हि नो येन नियन्त्रिताश्चेत्किं प्राणिनोऽपि स्ववशान्समञ्चत्। स तत्र यत्नं कृतवानितीव स्वदोर्द्वयाक्रान्तसमस्तजीव ॥45 जिसने प्राणों को नियन्त्रित नहीं किया वह क्या प्राणियों को अपने वश में कर सकता

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