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146/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन वर्ण नितान्त रम्य रूप में दिखाये गये हैं । इसी प्रकार अन्य उदाहरण भी है
"नन्दीश्वरं सम्प्रति देवतेव पिकाङ्गना चूतक सूतमेव । वस्वौकसारा किमिवात्रसाक्षीकृत्याशु सन्तं मुमुदे मृगाक्षी ॥''41
यहाँ वैदर्भी रीति की मनोरम छटा दर्शनीय है । गौडी रीति :
ओज गुण के प्रकाशक वर्गों से उदभट रचना हो तथा समस्त पद का बाहुल्य हो, ऐसी रचना को गौडी रीति कहते हैं ।
जहाँ अधिक पदों का समास हो वर्ग के द्वितीय और चतुर्थ अक्षरों का तथा स, ष, श, ह इन वर्गों का प्रयोग हो एवं अनुप्रास अलंकार का अधिक रूप में प्रयोग हो ऐसी रचना को गौडी रीति मानते हैं।
___ जयोदय महाकाव्य मैं गौडी रीति का प्रयोग बड़े ही रोचक ढंग से हुआ है, जिसकी एक झाँकी प्रस्तुत है
"भ्रश्यत्स्फुटित्वोल्लसनेन वर्म नाज्ञातमाज्ञातरणत्थशर्म । प्रयुद्धयता के नचिदादरेण रोमाञ्चितायाञ्च तनौ नरेण ॥43
यहाँ युद्ध में अनुरक्त एक वीर का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उत्साह पूर्वक आदर के साथ युद्ध करते हुए किसी व्यक्ति ने युद्धस्थल के यथार्थ सुख का अनुभव किया एवं उसके शरीर में रोमांच उत्पन्न हो आया उस रोम उठने के कारण गिरते हुए कवच को युद्ध संलग्न वह वीर नहीं जान सका ।
इस पद्य में 'भ्रश्यत्स्फुटित्वोल्लसनेन' 'वर्म' 'रणोत्थशर्म' 'प्रयुद्धयता' इन पदों में 'भ र' श य, 'त स्, त् व, ल ल, त् थ, र म, द् ध य, वर्गों के संयोग से गौडी रीति के व्यंजक हैं । इसी प्रकार अग्रिम श्लोक में भी रम्य गौडी रीति की रचना की गयी है । यथा
"नियोधिनां दर्पभृदर्पणालैर्यद् व्युत्थितं व्योम्नि रजोऽङिघ्रचालैः । सुधाकशिम्बे खलु चन्द्रबिम्बे गत्वा द्विरुक्ताङ्कतया ललम्बे ॥''44
यहाँ युद्धरत वीरों के दर्प से भरे हुए एवं उत्साह से युक्त जो पैरों का उछलना इधरउधर फेंकना आरम्भ हुआ उससे उठी हुई धूलि आकाश में पहुँच गयी और वहाँ जाकर अमृत छत्र चन्द्रबिम्ब में पड़कर उसके कलंक अर्थात् चन्द्र कलंक को दुना बना दी । इस पद्य में दर्प, भ्रदर्पण 'व्युत्थितं' आदि पदों में र, प, र, भ, आदि वर्गों में संयुक्ताक्षरादि प्रयोग से गौडी रीति निखर उठी है । पाञ्चाली :
वैदर्भी और गौडी रीति के प्रकाशक वर्गों को छोड़कर अन्य वर्गों का जहाँ प्रयोग