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152/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन के वक्षस्थल को निर्मल बताया गया है उसके ऊपर पड़ी हुई माला प्रतिबिम्बित हो रही है। अतएव वक्षस्थल पर भी माला का होना तथा भीतर भी पहुँच जाना धस जाना सिद्ध होता है । इस वर्णन से यह दिखाया गया है कि कामदेव के बाणों की परम्परा जय के अन्तर तक प्रविष्ट हो गयी । वह कामाहत हो गया । सकाम हो गया ।
इस महाकाव्य के अन्य स्थलों में भी वस्तु-ध्वनि की मनोरम छटा है - "सकलासु कलासु पण्डिताः सुतनोरालय इत्यखण्डिताः । न मनागपि तत्र शश्रमुः प्रतिदेशं प्रतिकर्म निर्ममुः ॥78
इसमें यह बताया गया है कि सुलोचना को सजाने वाली उसकी सखियाँ सम्पूर्ण कलाओं में पण्डिता थी । अतएव वे सब सुलोचना के प्रत्येक अङ्गों को परिपूर्ण रूप में अलङ्कृत करने में थोड़ा भी विलम्ब नहीं की अर्थात् उन्हें कुछ भी आयास नहीं करना पड़ा । इससे यह ध्वनि निकलती है कि सुलोचना की सखियाँ कुशल थी ।
इसी प्रकार इसी सर्ग के आगे के श्लोक पर भी ध्यान दें - "अलिकोचितसीम्नि कुन्तलाविबभूवुः सुतनोरनाकुलाः ।
सुविशेषक दीपसम्भवा विलसन्त्योऽज्जनराजयो न वा ॥179 - यहाँ सुन्दरी सुलोचना के ललाट प्रदेश में सजाये गये केशों का वर्णन किया गया है। वे सजे हुए केश शुभ तिलक रूप में दीपकोत्पन्न कज्जल समूह तो नहीं है । यहाँ संशय सन्देहालंकार द्वारा उत्पन्न किया गया है। इससे यह ध्वनि निकलती है कि सुन्दरी सुलोचना के केशपाश अत्यन्त काले थे ।
इसी प्रकार आगे के श्लोकं में भी यह ध्वनि दर्शनीय है -- "सुतनोर्निदधत्सु चारुतां स्वयमेवावयवेषु विश्रुताम् । उचितां बहुशस्यवृत्तितामधुनाऽलङ्करणान्यगुर्हि ताम् ॥180
यहाँ भी यह ध्वनित हो रहा है कि सुलोचना स्वभाव सुन्दर थी । अलङ्कार ध्वनिः
जयोदय महाकाव्य में अलङ्कार ध्वनि का बहुशः प्रयोग हुआ है । यथा"असमाप्तविभूषणं सतीरधिभित्तिस्खलदम्बरं यतीः । पटह प्रतिनादसंवशा खलु हावलिरुज्जहास सा ॥181
यहाँ जयकुमार को देखने के लिये स्त्रियाँ उत्कण्ठित होकर चल पड़ी। उस समय प्रासाद भवन की पंक्ति नगाड़ों की ध्वनि से गुंज चुकी थी। अधुरे ही आभूषण को धारण कर वस्त्रों के गिर जाने से वे स्त्रियाँ नग्न की भाँति प्रतीत हो रही थी तथा दीवाल का सहारा लेकर चल रही थी। लगता था मानो प्रासाद पुंज देखकर हँस रही हों ।