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षष्ठ अध्याय / 145
प्रदेश के नाम से पांचाली पांचाल अर्थात् पंजाब प्रदेश के नाम से व्यवहृत हुई । आचार्य विश्वनाथ ने रीत्नियों का वर्णन साहित्य दर्पण में किया है- जिस प्रकार शरीर में मुख आदि अवयवों का सन्निवेश होता है, उसी प्रकार काव्य के शब्दार्थमय शरीर में पदों की रचना विशेष को रीति कहते हैं । जो रसभाव आदि की उपकार करती है" । रीयते अनया इति रीति : ' गत्यर्थक 'ऋ' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर रीति शब्द निष्पन्न होता है । गति के ज्ञान, गमन, मोक्ष रूप अर्थ होते हैं । वस्तुतः रीति व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे गुण विशेष का ज्ञान होता हो उसे रीति कहते हैं । यह रीति चार प्रकार की होती है - (1) वैदर्भी, (2) गौडी, (3) पांचाली और ( 4 ) लाटिका (लाटी) ।
वैदर्भी रीति :
जिसमें दोषों का स्पर्श तक न हो, जो माधुर्यादि गुणों से युक्त हो और जिसको सुनने से उतना ही आनन्द प्राप्त होता हो, जितना वीणा की मधुर ध्वनि सुनने से हुआ करता है, वह वैदर्भी रीति कही जाती है 1 ।
वामन”, राजशेखर”, और कुन्तक 34 आदि आचार्यों तथा पद्मगुप्त परिमल, विल्हण", नीलकण्ठ 7 और श्री हर्ष आदि महाकवियों ने वैदर्भी रीति की अत्यधिक प्रशंसा की है।
माधुर्य संज्ञक गुण के व्यंजक वर्णों से जिसकी सुकुमार रचना की जाय तथा समास रहित अथवा अल्प समास युक्त अर्थात् दो-तीन पदों का समास हो ऐसी रचना को वैदर्भी रीति कहते हैं । माधुर्य गुण के व्यंजक ट, ठ, ड, ढ के बिना अनुस्वार पर सवर्ण वर्गान्त वर्णों का प्रयोग तथा रेफ णकार ह्रस्व होकर आते हों, ऐसे ही वर्ण वैदर्भी रीति के प्रकाशक होते हैं" । प्राचीन आचार्य रुद्रट ने प्राचीनों के अनुसार श्लेषादि दस गुणों से युक्त समास रहित तथा समास- युक्त वर्ग के द्वितीय अक्षर का जहां बाहुल्य हो, उसे वैदर्भी रीति कहते
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जयोदय महाकाव्य का दशम सर्ग वैदर्भी रीति के लिये दर्शनीय है, जिसके मनोरम वर्णन में सिद्धहस्त महाकवि के अभीष्ट ग्रन्थ का एक उदाहरण देखिए
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'दृक् तस्य चायात्स्मरदीपिकायां समन्ततः सम्प्रति भासुरायाम् । द्रुतं पतङ्गावलिवत्तदङ्गानुयोगिनी नूनमनङ्गसंगात् ।। "40
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इस पद्य में सुलोचना और जयकुमार के साक्षात्कार के समय जयकुमार के दृष्टि का वर्णन किया जा रहा है कि वरराज जयकुमार की दृष्टि उस समय चारो ओर दीप्तिमान् होती हुई कामदेव की प्रदीप रूपा सुलोचना पर पड़ी जो काम के साहचर्य से फतिङ्गों की पंक्तियों की भाँति उसके अङ्गों से लिपट गयी ।
इस पद्य में समस्त पद कहीं-कहीं हैं। वे भी अत्यन्त सरल पदों के ही समास हैं। तथा ‘समन्ततः’ ‘पतङगावलि' 'तदङ्गानुयोगिनी' 'अनङ्ग' 'सङ्ग' ये वैदर्भी गुण के व्यंजक