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86/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
"दरिणो हरिणा बलादमी तव धावन्ति मुधा महीपते । करुणासुपरायणादपि क्व पशूनान्तु विचारणाह्यपि ॥74
अर्थात् हे प्रभो ! यह आपका सैन्य समूह यद्यपि करुणा से भरा हुआ है । सेना युद्ध करने में प्रवृत्त रहने वाली अथवा निरन्तर युद्ध हेतु अव्यसनशील दया करना नहीं जानती. अपितु आखेट आदि करने में ही अपनी उत्कृष्ट दक्षता व्यक्त करने में तत्पर रहती है । परन्तु जयकुमार के सैन्य समूह में करुणा परायणता दिखायी गयी है । सारथी कह रहा है कि सैन्य दल के करुणा परायण कहने पर भी ये हरिण इधर से उधर व्यर्थ ही भयभीत होकर दौड रहे हैं (उनका दोष क्या है) पशु में विचार कहाँ ? जिनकी सेना में करुणा भरी हुई हो उसका जीवन क्षेत्र शान्ति की ओर क्यों न उन्मुख होगा ।
इसी प्रकार अनेकों स्थलों में इसका विकसित रूप दिखाया गया है। जिसका मनोहारी चित्रण देखने योग्य है -
"यथोदयेऽहस्तमयेऽपि रक्तः श्रीमान् विवस्वान् विभवैकभक्तः । विपत्सु सम्पत्स्वपि तुल्यतैवमहो तटस्था महतां सदैव ॥''75
अर्थात् महापुरुषों का जीवन सदा तटस्थता से ही ओतप्रोत रहता है। अभ्युदय एवं अवनति दोनों उनके लिये समान रहते हैं । न तो उदयकाल में प्रसन्नता और न अवनति काल में मलिनता ही उनपर अधिकार जमा पाती है । अर्थान्तरन्यास द्वारा व्यक्त किया गया है कि तटस्थता ही सोपान की भूमिका है।
इसी प्रकार षोडश सर्ग में कामाधीन होता हुआ भी जयकुमार कहता है कि पंचशर कामदेव मुझ एकाकी के पीछे लगा हुआ यह निशाचर (राक्षस) है । ऐसा सोचकर कह रहा है कि अष्टांग का तंत्र सूत्र न प्राप्त करूं तो समानता कहाँ से हो सकती है । समकक्ष होने में ही सुख की सम्भावना हो सकती है । परतन्त्रता या भेद बुद्धि में इस सुख की सम्भावना नहीं है जिसे बड़े ही मार्मिक ढंग से व्यक्त किया गया है जो प्रस्तुत है -
"निशाचरः पञ्चशरोऽस्ति पृष्ठलग्नो ममैकाकिन आ निकृष्टः । त्वत्तो लभे नो यदि तन्त्रसूत्रमष्टाङ्गसिद्धेः समतास्तु कुत्र ॥"77 इसी प्रकार एक उदाहरण देखें - "श्यामं मुखं मे विरहैकवस्तु एकान्ततोऽरक्तमहोमनस्त । प्रत्यागतस्ते ह्य धराग्रभाग एवाभिरूपे मनसस्तु रागः ॥178 उक्त कथन शान्त को भान नहीं करता किन्तु उसकी सत्ता का परिचय ही देता है। अन्यत्र स्थल भी इससे अछूता नहीं, जिसकी एक झलक को देखेंअनादिरूपा सुनित्यनेन ह्यनन्तरूपत्वमितं जयेन । अनाद्यनन्ता स्मरतिक्रियास्ति तयोरनङ्गोक्तपथप्रशस्तिः ॥79