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पंचम अध्याय /99 "उपमैव च प्रकार वैचित्रयेणानेकालङ्कारबीजभूता ।'37 उपमा अनेक अलङ्कारों के मूल में स्थित है, ऐसा पण्डित राज भी मानते हैं"विपुलालङ्कारवर्तिनी उपमा पं. राज जगन्नाथ ने उपमा का जो लक्ष दिया है, वह इस प्रकार है
"सादृश्यं सुन्दरं वाक्यार्थोपस्कारकमुपमालङ्कृतिः।" अर्थात् वाक्यार्थ की शोभा बढ़ाने वाले सुन्दर सादृश्य को उपमालङ्कार कहते हैं । यहाँ सुन्दर का अर्थ है चमत्काराधायक तथा चमत्कार है आनन्द विशेष । उपमा के दो भेद हैं- (1) पूर्णा (2) लुप्ता । पूर्णा के छ: भेद हैं और लुप्ता के उन्नीस। दोनों के योग से पच्चीस भेद हुए । फिर लुप्ता में ही सात भेद और होते हैं जो पूर्वोक्त भेदों के साथ युक्त होने पर बत्तीस हो जाते हैं, इनमें से प्रत्येक के द्वारा पाँच प्रकार के अर्थों का उपकरण होता है। यथा - 1. वस्तुरूप प्रधान व्यङ्ग्य, 2. अलङ्काररूप प्रधान व्यङ्ग्य, 3. रसादिरूप प्रधान व्यङ्ग्य, 4. वस्तुरूप प्रधान वाक्य और 5. अलङ्काररूप प्रधान वाक्य। इस प्रकार एक सौ साठ भेद होते हैं । जयोदय महाकाव्य में उपलब्ध उपमा के समस्त भेदों के उदाहरण न प्रदर्शित कर हम यहां 'स्थालीपुलाक' न्याय से कतिपय उद्धरण प्रस्तुत करते हैं
"समुत्सवकारस्यास्याभ्युदयेन रवेरिव । श्रीमतो मुनिनाथस्याप्युद्भिन्ना मुखमुद्रणा ॥""
अर्थात् सूर्य के उदय होने पर सूर्य की किरणें कमल आदि के लिये अभ्युदय कारक बन जाती हैं, वैसे ही शोभा सम्पन्न मुनिनाथ के आगमन से उत्सव की प्रतीति एवम् इनकी मुख-मुद्रा भी विकसित हुई अर्थात्-बोलना प्रारम्भ किये ।
प्रकृत पद्य में मुनिनाथ उपमेय सूर्य उपमान समुत्सव कर साधारण धर्म ‘इव' उपमा का वाचक शब्द है ।
इसी प्रकार आगे के सर्गों में भी उपमा का स्थान पर्याप्त है । सहृदयों को आनन्द प्रदान करने वाले कुछ उदाहरण नीचे प्रस्तुत हैं
(अ) "वाग्मिताऽपि सिता यावद्रसिता वशिताभृतः। _भाष्यावली च दूतास्याल्लालेव निरगादियम् ॥40 (ब) "आसनेषु नृपतीनिह कश्चित्सन्निवेशयति स स्मविपश्चित्।
द्वास्थितोरविकरानवदात उत्पलेषु सरसीव विभातः ॥41 (स) स पवित्र इतीव सत्क्रियासहितः सम्महितो वर श्रिया ।
शुचिवेषधरैः पुरस्सरैश्च सुनाशीर इवाभवन्नरैः ॥42