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पंचम अध्याय / 127 "सामदामविनयादरवादैर्धामनाम व वितीर्य तदादैः । आगतानुपचचार विशेषमेष सम्प्रति स काशिनरेशः ॥"155
इसमें स्वयंवरार्थ आगन्तुक अतिथि जनों के भव्य स्वागत को दिखाया गया है कि वश्वविख्यात काशी नरेश अकम्पन ने समयोचित वार्तालाप, माल्यदान तथा आदर युक्त नम्र वचनों द्वारा एवं सुन्दर निवास स्थान देकर अतिथियों का रम्य स्वागत किया । इस पद्य में 'म' 'म', 'द' 'द', 'च' 'च' आदि वर्णों की आवृत्ति की गयी जो प्रकृत अलङ्कार का पूर्ण पूरक है। (ग) श्रुत्यनुप्रास : जहाँ तालु, दन्त आदि स्थान से उच्चार्यमान वर्गों का प्रयोग हो वहाँ
व्यंजन सादृश्य होने से श्रुत्यनुप्रास कहलाता है । उदाहरणार्थ निम्न श्लोक
अवलोकनीय है :"तत्तदाशयविदाऽथ सुरेण भाषितं नृपसकुक्षिचरेण । राजराजिचरितोचितवक्त्री वित्त्वमेव सदसीह भवित्री ॥''157
प्रस्तुत श्लोक में सभागत अनेकशः राजाओं का जो विभिन्न भाषा-भाषी हैं, उनका रिचय कौन ? कैसे देगा ? जिससे सुलोचना जान सके। इस अभिप्राय को जानकर अकम्पन
भाई चित्राङ्गद देव ने बुद्धि देवी (विद्या देवी) से कहा कि हे विद्यावती ! इस सभा में नेकशः राजा आये हुए हैं । उनका सुलोचना हेतु परिचय देने का भार इस सभा में तुम्हारे
ऊपर होगा । यहाँ 'त' 'त', 'स' 'स' आदि दन्त एवं तालु स्थानीय वर्गों का प्रयोग होने ' श्रुत्यनुप्रास रम्य रूप में चित्रित हुआ है। (घ) अन्त्यानप्रास : पहले स्वर के साथ ही यदि यथावस्थ व्यंजन की आवत्ति हो तो
वह अन्त्यानुप्रास कहलाता है । इसका प्रयोग पद अथवा पाद के अन्त में ही होता है।58 । इसीलिये इसे अन्त्यानुप्रास कहते हैं प्रकृत अलङ्कार प्रदर्शन करने
में कवि की अभिरुचि अधिक दीखती है । उदाहरण"स्यन्दनं समधिरुह्य नायकः कौतुकाशुगसरूपकायकः । प्रीतिसूस्सुमृदुरूपिणी प्रिया स प्रतस्थ उचितादरस्तया ॥159
महाराज अकम्पन का आदेश लेकर जिस समय जयकुमार प्रस्थान करते हैं, उस प्रस्थान काल में ऐसा वर्णन दिखाया गया है - ___आश्वचर्य है पूर्ण कामदेव के समान शरीर धारण करने वाले नायक जयकुमार एवं अनुराग को उत्पन्न करने वाली कोमल कान्तिशालिनी प्रिया सुलोचना रथ पर आरूढ़ हुए तथा सुलोचना के द्वारा अमूल्य आदर के साथ नायक ने प्रस्थान किया ।
यहाँ स्वर के साथ प्रथम पाद के अन्त में 'आयकः' की द्वितीय पाद के अन्त में उसकी स्वर व्यंजन के साथ वैसी ही आवृत्ति की गयी है।