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उनका मुखडा सदा प्रफुल्लित
भय का था लव-लेश नही। चिह्न तनिक उद्विग्न हृदय का
आनन पर था शेप नही ।।
तुरत पकड कर उस विपधर को
दूर कही धर देते है। अपनी पूरी मित्र मण्डली
को निर्भय कर देते है। xxx
हुए सफल जब वर्धमान तब
देव पुन अकुलाते है । नयी परीक्षा लेने के हित
दौड धरा पर आते है।
एक दिवस सव वालक मिलकर
खेल रहे थे उपवन मे। छद्म वेश मे देव पधारे
द्वेप भरा था कुछ मन मे ॥
54 / जय महावीर