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यक्ष रात मे घात लगा केटूटा उन पर बज्र गिरा के। अट्टहास फिर किया जोर सेअशनि-पात के तुमुल शेर से।
दिग-दिगन्त मे शोर हुआ थागर्जन चारो ओर हुआ था। बनकर दानव गज के जैसे, बडे-बडे फिर विषधर जैसे।
रूप विकट वह धर कर भू परकरता था आघात भयकर। लेकिन निश्चिन्त अचल थेक्षण भर को भी नहीं विकल थे।
ध्यान लगाये रहे निरन्तररह कर भू पर, भू से ऊपर । यक्ष भयकर हआ पराजितपाकर दारुण शक्ति अपरिमित ।
ज्य महावीर / 107