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जग का हो कल्याण इसी मे
सदा निरत रहते थे ।
परम शान्ति की बात हृदय से - सब को ही कहते थे ।
मन मे कल्मप नही शेष था
दृढ थे अपने व्रत पर ।
मन साधना के तप से ही -
वर्षीतप की
पाते थे सन्तोष
बढ़ते रहे निरन्तर ॥
लीला सत्र ने
अद्भुत देखी भू पर । अखण्डित
अपना सब कुछ देकर ॥
जो भी लेना महा प्रमादी
समझ मुखी हो जाता ।
वह भी प्रभु के विमल भाव मे -
सहज वही खो जाता ॥
जय महावीर / 77