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भारतीय योग- परम्परा : एक परिचय
की प्राप्ति के सन्दर्भ में भी प्रकारान्तर से योग का ही वर्णन हुआ है। यजुर्वेद में कहा गया है सबको उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर, मन और इन्द्रियों के अधिष्ठाता, देवताओं को जो स्वर्ग आदि लोकों में, आकाश में विचरन करानेवाले तथा भारी प्रकाश फैलानेवाले हैं, हमारे मन और बुद्धि से संयुक्त होकर हमें प्रकाश प्रदान करने के लिए प्रेरित करें, ताकि हम उन परमेश्वर का साक्षात् करने के लिए ध्यान करने में समर्थ हों । १४ इसी में आगे कहा गया है- हे मनुष्यों! अविद्या रूपी निद्रा से उठकर चैतन्यतापूर्वक ईश्वर की स्तुति करनेवाले एवं बुद्धिमान लोग सर्वत्र व्यापक मोक्षदायी जिस परमपद को सम्यक् रूप से प्रकाशित करते हैं, उसी को तुम भी प्रकाशित करो। १५
इस प्रकार हम देखते हैं कि वेदों में मंत्रो के द्वारा प्राकृतिक वस्तुओं तथा विभिन्न आधारों के माध्यम से स्तुति कर योग के स्वरूप को वर्णित किया गया है। योग का परम उद्देश्य आत्मा का परमात्मा के साथ ऐक्य स्थापित करना है, जिसका स्पष्ट वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। कहा गया है- हे अग्निदेव ! यदि मैं तू अर्थात् सर्वसमृद्धि सम्पन्न हो जाऊँ या तू मैं हो जाऊँ तो मेरे लिए तेरे सभी आशीर्वाद सत्य हो जायें । १६
उपनिषदों में योग
वेदों का जब विस्तार हुआ और उनके आधार पर विभिन्न वैचारिक शाखाएँ बनीं तब उन शाखाओं से सम्बन्धित अलग-अलग उपनिषदों का प्रतिपादन हुआ। यह सच भी है कि वेदों में अंकुरित योग के बीज का विकास एवं पल्लवन उपनिषद् काल में पर्याप्त हुआ है। उपनिषदों में योग शब्द का प्रयोग दर्शन विशेष तथा क्रियात्मक योग दोनों अर्थों में हुआ है, जिसे कठ, मुण्डक, छान्दोग्योपनिषद् आदि में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। श्वेताश्वतरोपनिषद् के द्वितीय अध्याय में क्रियात्मक योग का स्पष्ट एवं विस्तार से वर्णन मिलता है। इसमें षडंग योग का वर्णन करते हुए कहा गया है कि शरीर को गिरुन्नत अर्थात् छाती, गर्दन और सिर उन्नत व सम करके मनसहित इन्द्रियों को हृदय में समावेश करके ब्रह्मरूप नौका से विद्वान् लोग सभी भयानक प्रवाहों को तर जायें। इस शरीर में प्राणों को अच्छी तरह निरोध करके युक्तचेष्टा हों और प्राण के क्षीण होने पर नासिकाद्वार से श्वास छोड़ें और इन दुष्ट घोड़ो की लगाम रूपी मन को विद्वान् अप्रमत्त होकर धारण करें १७ तथा ध्यान रूप मंथन से अत्यन्त गूढ़ आत्मा का दर्शन करें। १८ इस प्रकार उपनिषदों प्रयुक्त 'योग' शब्द आध्यात्मिक अर्थ को प्रकाशित करने के साथ-साथ ध्यान, तप, समाधि आदि के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है । १९
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योग से साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। आत्मज्ञान का फल बताते हुए कठोपनिषद् में कहा गया है कि कठिनता से दिख पड़नेवाले गूढ़ स्थानों में अनुप्रविष्ट,
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