Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ (१०) हैं। समाधिशतक का अनुशीलन करने वाला अध्यात्म की अतल गहराइयों में जा सकता है। पूज्यपाद ने इन ग्रंथों में अनेक रहस्यों का उद्भावन किया है। उन्होंने अनेक प्रश्न उपस्थित किए हैं-- ' मैं किससे बोलूं ? जो दिखाई देता है, वह अचेतन है। जो दिखाई नहीं देता, वह चेतन है।' काम के बारे में उनका चित्रण यथार्थ को उद्भावित करता है 'आरम्भे तापकान् प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान् । अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः ॥ ' स्वरूपसम्बोधन अकलंकदेव की कृति है। उनके शास्त्रीयज्ञान, तर्कविद्या और अध्यात्म के प्रति हर व्यक्ति को समादर होगा, जिसने भी उनको पढ़ने का आयास किया है। इस छोटी-सी कृति में उन्होंने आत्मा के स्वरूप का वस्तुतः संबोध किया है। उपाध्याय यशोविजयजी जैन न्याय और अध्यात्मविद्या के मूर्धन्य मनीषी हैं। उनकी प्रतिभा चतुर्दिक् व्याप्त है। अध्यात्मोपनिषद्, योगसार आदि ग्रंथों में उनका आध्यात्मिक अनुभव उजागर हुआ है। ज्ञानसार की चयनिका में उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। (इष्टोपदेश १७) जैन आचार्यों द्वारा रचा हुआ योग का विशाल साहित्य है । मुनि दुलहराजजी ने उसमें से कुछेक कृतियों को चुनकर अध्यात्मविद्या में रुचि रखने वालों के सामने एक पाथेय प्रस्तुत किया है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने साधु-संघ, श्रावक समाज तथा व्यापक क्षेत्र में अध्यात्मविद्या के प्रति जो चेतना जागृत की, उसकी विशाल अपेक्षा है। उस अपेक्षा की पूर्ति के लिए इस प्रकार के अनेक प्रयत्न अपेक्षित हैं । लाडनूं १८-९-९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only आचार्य महाप्रज्ञ www.jainelibrary.org

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