Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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पाथेय
मुमुक्षा के क्षेत्र में धर्म और योग-ये दो शब्द सर्वाधिक प्रचलित हैं। योग की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। धर्म के साथ अनेक कर्मकांड जुड़ गए। योग उनसे मुक्त रहा। कालक्रम के अनुसार उसकी अनेक शाखाएं प्रचलित हो गईं-अध्यात्मयोग, ध्यानयोग, राजयोग आदि। जैन आचार्य अनेकांतवादी थे, इसलिए उन्होंने किसी एक शाखा को प्राथमिकता नहीं दी, सबका समन्वय किया।
योग का आधार है-गुप्ति। पतंजलि ने लिखा-'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः'। जैन साधना का सूत्र होगा-'मनोवाक्कायगुप्तिर्योगः'। आचार्य श्री तुलसी ने योग की परिभाषा की है-'मनोवाक्कायानापानेन्द्रियाहाराणां निरोधो योगः। शोधनं च। पूर्वं शोधनं ततो निरोधः।'
प्रस्तुत संकलन में योग के सात ग्रंथों का समावेश है कायोत्सर्ग प्रकरण, ध्यानशतक, योगशतक, समाधिशतक, इष्टोपदेश, स्वरूपसम्बोधन तथा ज्ञानसार चयनिका।
जैन साधना पद्धति में कायोत्सर्ग का स्थान पहला है और ध्यान का स्थान दूसरा। कायोत्सर्ग की सिद्धि होने पर ही ध्यान का विकास संभव बनता है। आवश्यकनियुक्ति का एक प्रकरण है-कायोत्सर्ग।
ध्यानशतक जिनभद्रगणि की रचना है। धवला में भी इनके समान गाथाएं उपलब्ध हैं। ध्यान की व्यापक अवधारणा के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
योगशतक आचार्य हरिभद्र की रचना है। आचार्य हरिभद्र ने योग के बारे में अनेक ग्रंथ लिखे। उन्होंने जैनयोग में हठयोग आदि प्रचलित योगपरम्पराओं का समावेश किया। उसका प्रतिबिम्ब योगशतक में देखा जा सकता है।
समाधिशतक और इष्टोपदेश आचार्य पूज्यपाद की महत्त्वपूर्ण रचनाएं
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