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होता है, आहारादिकका त्याग कर देता है । वैसे अनादि से सव जीव ससार मे हैं, वह कर्मों को अपना मानता है । उनमे कोई जीव किसो निमित्त से जीव और कर्म का यथार्थ ज्ञान करके कर्मों से उदासीन होकर उनको पर जानता है, उनसे सम्बन्ध छुडाना चाहता है । बाहर मे जैसा निमित्त है वैसी प्रवृत्ति करता है। इस प्रकार ज्ञानाभ्यास के द्वारा उदासीन होता है वही कार्यकारी है। कोई जीव उन कर्मों को अपना जानता है और किसी कारण से कोई कर्मो से अनुरागरूप प्रवृत्ति करता है, कोई अशुभ कर्म को दुख का कारण जानकर उदासीन होकर विषयादिक का त्यागी होता है, इस प्रकार ज्ञान के बिना जो उदासीनता होती है वह पुण्यफल की दाता है, मोक्षकार्य का साधन नही है। अत. उदासीमता में भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है। उसी प्रकार अन्य भी शुभ कार्यों मे ज्ञानाभ्यास ही प्रधान जानना । देखो, महामुनि के भी ध्यान अध्ययन दो ही कार्य मुख्य हैं । इसलिये शास्त्र अध्ययन द्वारा जीव-कर्म का स्वरूप जानकर स्वरूप ध्यान करना।
प्रश्न १४-यहां कोई तर्क करे कि कोई जीव शास्त्र अध्ययन तो बहुत करता है और विषयादिक का त्यागी नहीं होता तो उसको शास्त्र अध्ययन कार्यकारी है या नहीं ? यदि है ! तो महन्त पुरुष क्यों विषयादिक तजे? और नहीं तजें । तो ज्ञानाभ्यास की महिमा कहाँ रही?
उत्तर-उसका समाधान-शास्त्राभ्यासो को दो प्रकार हैं। (१) लोभार्थी (२) आत्मार्थी १-वहाँ अन्तरग अनुराग के बिना ख्याति लाभ पूजादिक के प्रयोजन से शस्त्राभ्यास करे वह लोभार्थी है; वह विपयादिक का त्याग नहीं करता। अथवा ख्याति पूजा लाभादिक के अर्थ विपयादिक का त्याग भी करे फिर भी उसका शास्त्राभ्यास कार्यकारी नही है ।
२-जो जोव अन्तरग अनुराग से आत्महित के अर्थ शास्त्राभ्यास करता है वह धर्मार्थी है। प्रथम तो जैनशास्त्र हो ऐसे हैं कि जो