________________
( ८१ )
(ग) मैं पर द्रव्य का कर सकता हूँ यह सम्यक्त्व से रहित पुरुषो का व्यवहार है । ( समयसार गा० ३२४ से ३२७ की टीका ) (घ) जो व्यवहार के कथन को निश्चय का कथन मानता है उसके लिए "तस्य देशना नास्ति" कहा है । ( पुरुषार्थसिद्धिउपाय गा० ६) (ड) व्यवहार से लोग आत्मा को घडा, वस्त्र, इन्द्रियो द्रव्यकर्म और शरीरादि नोकर्म का करता है ऐसा मानना व्यवहारी जीवो का व्यामोह (भ्रान्ति अज्ञान ) है | ( समयसार गा० ६८ )
१४. इच्छा का प्रकार और दुख
(अ) दुख का लक्षण आकुलता है और आकुलता इच्छा होने पर होती है। अज्ञानी जीवो को अनेक प्रकार की इच्छा पायी जाती है
( आ ) विपय ग्रहण की इच्छा - इन्द्रियो के विषय पुद्गल पदार्थों को जानने-देखने की इच्छा होती है अर्थात् भिन्न-भिन्न रंग रूप देखने की, राग सुनने की इस इच्छा का नाम विषय है ।
(इ) एक इच्छा कषाय भावो के अनुसार कार्य करने की है -- जैसे किसी का बुरा करने को, उसे नीचा दिखाने की इच्छा होती है, जब तक यह कार्य ना हो तब तक महाव्याकुल रहता है, इस इच्छा का नाम कषाय है ।
(ई) एक इच्छा पाप के उदय से शरीर मे या बाह्य अनिष्ट कारण मिलते हैं, उनको दूर करने की होती है । जब तब वह दूर न हो तब तक महाव्याकुल रहता है, इस इच्छा का नाम पाप का उदय है ।
इस प्रकार इन तीन प्रकार की इच्छा होने पर सभी मिथ्यादृष्टि दुख मानते हैं सो दुख ही है । इन तीन प्रकार की इच्छाओ मे एकएक प्रकार की इच्छा के अनेक प्रकार हैं ।
( उ ) कितने ही प्रकार की इच्छा पूर्ण होने के कारण पुण्योदय से मिलते हैं, परन्तु उनका साधन एक साथ नही हो सकता है। इसलिए