Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 301
________________ ( 305 ) सम्यकदर्शन-ज्ञान-वैराग्य को कष्टदाता मानने रूप ऐसा अनादिकाल का श्रद्धान विशेष दृढ होने से ऐसे श्रद्धान को गृहीत मिथ्यादर्शन बताया है / (6) वर्तमान मे विशेष रूप से मनुष्यभाव व दिगम्बर धर्म होने पर भी कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र का उपदेश मानने से निश्चय सम्यकदर्शन-ज्ञान-वैराग्य को कष्टदाता मानने रूप—ऐसा अनादिकाल का ज्ञान विशेष दृढ होने से ऐसे ज्ञान को गृहीत मिथ्याज्ञान बताया है। (7) वर्तमान मे विशेष रूप से मनुष्यभव व दिगम्बर धर्म होने पर भी कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र का उपदेश मानने से निश्चय सम्यक्दर्शन, ज्ञान, वैराग्य को कष्टदाता मानने रूप ऐसा अनादिकाल का आचरण विशेष दृढ होने से ऐसे आचरण को गृहीत मिथ्याचारित्र बताया है। प्रश्न ६-निश्चय सम्यकदर्शन ज्ञान-वैराग्य को कष्टदाता मानने रूप मान्यता को सवरतत्व सम्बन्धी जीव की भूल रूप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यकदर्शनादि की प्राप्ति होकर पूर्ण सुखीपना कैसे प्रगट होवे इसका उपाय छहढाला की दूसरी ढाल में क्या बताया है ? उत्तर-(१) मैं ज्ञान दर्शन उपयोगमयी जीव तत्व हू। (२)मेरा कार्य ज्ञाता-दृष्टि है। (3) आख-नाक कान औदारिक आदि शरीरो रूप मेरी मूर्ति नही है / (4) चैतन्य अरूपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है। (5) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है। (6) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जीव द्रव्य हैं। (7) अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य हैं। (8) असख्यात प्रदेशी एक-एक धर्म-अधर्म द्रव्य है / (6) अनन्त प्रदेशी एक आकाश द्रव्य है। (10) लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य हैं। इन सब द्रव्यो से मुझ निज आत्मा का किसी भी अपेक्षा किसी भी प्रकार का कर्ता-भोक्ता सबध नहीं है, क्योकि इन सब द्रव्यो का और मुझे निज आत्मा का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पृथक्-पृथक् है / ऐसा जानकर ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी निज जीवतत्व का माश्रय ले, तो निश्चय सम्यकदर्शन-ज्ञान

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