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( ९७ ) न करे, तो भी गृहस्थो को विवाहादि की बाते बताये, सम्बन्ध कराये वैटरी आदि रक्खे, जीव हिंसा स्वय करे और गृहस्थ के पास से करावे तो पापी होकर नरक जाता है। [लिंगपाहुड गा० ६]
(ओ) परन्तु अल्प परिग्रह ग्रहण करने का फल निगोद कहा है, तब ऐसे पापो का फल तो अनन्त ससार होगा ही होगा।
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ १७६] (औ) सम्यग्दर्शन प्राप्त किये विना विषय और कपाय को वासना का अभाव नहीं होता है । इसलिये प्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करना पात्र जीव का प्रथम कर्तव्य है ।
२३ अन्तरंग श्रद्धा और उसका फल केवलज्ञान (अ) कर्मोदय जनित शुभाशुभरूप कार्य करता हुआ तद्र प परिणमित हो, तथापि अन्तरग मे ऐसा श्रद्धान है कि यह कार्य मेरा नहीं है। यदि शरीराश्रित व्रत-सयम को भी अपना माने तो मिथ्यादृष्टि होय ।
[मोक्षमार्गप्रकाशक, चिट्ठी मे पृ० २ (आ) जो ज्ञान मति-श्रुतिरूप हो प्रवर्तता है वही ज्ञान वढते-- वढते केवलज्ञानरूप होता है। [मोक्षमार्गप्रकाशक चिट्ठी मे पृ० २]
(इ) (१) निर्विकल्प दशा मे केवल आत्मा को ही जानता है एक तो यह विशेषता है। (२) मात्र स्वरूप से ही तादात्म्यरूप होकर प्रवृत्त हुआ यह दूसरी विशेषता है। (३) ऐसी विणेपताएं होने पर कोई वचनातीत ऐसा अपूर्व आनन्द होता है जो कि विपय सेवन में। उसकी जाति का अश भी नही है । इसलिए उस आनन्द को अतीन्द्रिय कहते है।
[मोक्षमार्गप्रकाशक चिट्ठी पृ० ६-७] (ई) भला यह है कि चैतन्य स्वरूप के अनुभव का उद्यमी रहना ।'
[मोक्षमार्गप्रकाशक चिट्ठी पृष्ठ 3 सम्यग्दृष्टि को स्वपर के स्वरूप मे न सशय, न विमोह, न विभ्रम यथार्थ दृष्टि है, इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव अन्तर्दृष्टि से मोक्ष पद्धति