Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 278
________________ ( 282 ) स्वत-शील-संयमादि का नाम व्यवहार नहीं है। (3) इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है, उसे छोड़ दें। (4) और ऐसा श्रद्धान कर कि इनको तो बाह्य सहकारी जानकर उपचार से मोक्षमार्ग कहा है-यह तो परद्रव्याश्रित है। (5) तथा सच्चा मोक्षमार्ग वीतराग भाव है वह स्व-द्रव्याश्रित है। (6) इस प्रकार व्यवहार को असत्यार्थ-हेय जानना। (7) व्रतादिक को छोड़ने से तो व्यवहार का हेयपना नहीं होता है।" इस वाक्य पर मुनिपने को लगातार समझाइये ? उत्तर-(१) 28 मूलगुणादि प्रवृत्तिरूप व्यवहार मुनिपना हेय है •और सकलचारित्र शुद्धिरूप निश्चय मुनिपना प्रगट करने योग्य उपादेय है। ऐसे हेय-उपादेय का जिसे विचार नही है-ऐसा निर्विचारी पुरुप कहता है कि तुम 28 मूलगुणादि प्रवृत्ति रूप व्यवहार मुनिपने को असत्यार्थ-हेय कहते हो तो हम 28 मूलगुणादि प्रवृत्तिरूप व्यवहार मुनिपने का पालन क्यो करे ? हम तो 28 मूलगुणादि प्रवृत्तिरूप व्यवहार मुनिपने को छोडकर अशुभ मे प्रवर्तन करेंगे-ऐसा प्रश्नकार का प्रश्न है। (2) उसे उत्तर दिया है कि 28 मूलगुणादि की प्रवृत्ति का नाम व्यवहार मुनिपना नही है / (3) 28 मूलगुणादि की प्रवृत्ति को मुनिपना मानना व्यवहार है-इस खोटी मान्यता को छोड दे / (4) ऐसा श्रद्धान कर कि जिसको अपनी आत्मा के आश्रय से सकलचारित्र शुद्धिरूप निश्चय मुनिपना प्रगटा है, उसके 28 मूलगुणादि की प्रवृत्ति को बाह्य सहकारी जानकर उपचार से मुनिपना कहा है और 28 मूलगुणादि की प्रवृत्ति तो पर-द्रव्याश्रित है। (5) तथा सच्चा मुनिपना तो सकलचारित्ररूप शुद्धि ही है और यह स्वद्रव्याश्रित है / (6) इस प्रकार मूलगुणादि प्रवृत्ति रूप व्यवहार मुनिपने को असत्यार्थ-हेय ही जानना / (7) 28 मूलगुणादिरूप प्रवृत्ति को छोडने -से तो व्यवहार मुनिपने का हेयपना नही होता है। प्रश्न 15-"(1) फिर हम पूछते हैं कि व्रतादिक को छोड़कर क्या करेगा? (2) यदि हिसादि रूप प्रवर्तगा तो वहां तो मोक्षमार्ग का

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