Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal
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________________ ( 297 ) .. जीव के विकार भाव होने मे निमित्तरूप विकारी परमाणु(स्कन्ध) हो सकते हैं, किन्तु द्रव्य की अपेक्षा से देखने पर प्रत्येक परमाणु पृथक ही है,-दो परमाणु कभी भी नही मिलते और एक पृथक् परमाणु जीव को कभी भी विकार का निमित्त नहीं हो सकता, अर्थात प्रत्येक द्रव्य भिन्न है, ऐसी स्वभावदृष्टि से कोई द्रव्य अन्य द्रव्य के विकार का निमित्त भी नहीं है। इस प्रकार द्रव्य दृष्टि से किसी द्रव्य मे विकार है ही नही, जीव द्रव्य मे भी द्रव्य दृष्टि से विकार नही है। पर्याय दृष्टि से जीव की अवस्था मे रागद्वेष होता है और उसमे कर्म निमित्तरूप होता है, किन्तु पर्याय को गौण करके द्रव्यदृष्टि से देखा जाय तो कर्म कोई वस्तु ही नही रहा, क्योकि वह तो स्कन्ध है; इसलिये द्रव्यदृष्टि से जीव के विकार का निमित्त कोई द्रव्य न रहा, अर्थात् अपनी ओर से लिया जाये तो जीव द्रव्य मे विकार ही नहीं रहा। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य भिन्न है ऐसी दृष्टि अर्थात् द्रव्यदृष्टि के होने पर राग-द्वेष की उत्पत्ति का कारण ही न रहा, अत द्रव्यदृष्टि मे वीतराग, भाव की ही उत्पत्ति रही। __ अवस्थादृष्टि मे–पर्याय दृष्टि मे अथवा दो द्रव्यो के सयोगी कार्य की दृष्टि मे राग-द्वेषादिभाव होते हैं / 'कर्म' अनन्त पुद्गलो का सयोग है, उस सयोग पर या सयोगी भाव पर लक्ष दिया कि रागद्वेष होता है, किन्तु यदि अपने असयोगी आत्म स्वभाव की दृष्टि करे तो रागद्वेष न हो, किन्तु उस दृष्टि के बल से मोक्ष ही हो। इसलिए मुमुक्षु के द्रव्य दृष्टि का अभ्यास परम कर्तव्य है। आस्रवतत्त्व प्रश्न १-अज्ञानी आस्रव तत्त्व के विषय में कैसा मानता है ?

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