Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 295
________________ ( 266 ) व दिगम्वर धर्म होने पर भी कुदेव कुगुरु कुशास्त्र उपदेश मानने से अहिंसादि पुण्यास्रव उपादेय है, ऐसा अनादि काल का श्रद्धान विशेष दृढ होने से श्रद्धान को गृहीत मिथ्यादर्श न बताया है। (6) वर्तमान मे विशेप रूप से मनुष्यभव व दिगम्बर धर्म होने पर भी कुदेव कुगुरु कुशास्त्र का उपदेश मानने से अहिंसादि पुण्यास्रव उपादेय है ऐसा अनादिकाल का ज्ञान विशेष दृढ होने से ऐसे ज्ञान को गृहीत मिथ्याज्ञान बताया है / (7) वर्तमान मे विशेष रूप से मनुष्यभव व दिगम्बर धर्म होने पर भी कुदेव कुगुरु-कुशास्त्र का उपदेश मानने से अहिंसादि पुण्यास्रव उपादेय है ऐसा अनादिकाल का आचरण विशेष दृढ होने से ऐसे आचरण को गृहीत मिथ्याचारित्र बताया है। प्रश्न ६-अहिंसादि पुण्यालय उपादेय है ऐसा आस्रवतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूलरूप अगहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यकदर्शनादि की प्राप्ति होकर पूर्ण सुखीपना कैसे प्रकट होवे, इसका उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे क्या बताया है ? उत्तर-(१) मैं ज्ञान दर्शन उपयोगमयी जीव तत्त्व हूँ। (2) मेरा कार्य ज्ञाता-दृष्टा है। (3) आँख कान नाक औदारिक आदि शरीरी रूप मेरी मूर्ति नही है। (4) चैतन्य अरूपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है। (5) सर्वज्ञ स्वभावी जान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है / (6) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जीव है। (7) अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य है। (8) असख्यात प्रदेशी एक-एक धर्म-अधर्म द्रव्य हैं / (6) अनन्त प्रदेशी एक आकाश द्रव्य है। (10) लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य है इन सब द्रव्यो से मुझ निज आत्मा का किसी भी अपेक्षा किसी प्रकार का कर्ता भोक्ता सम्बन्ध नही हैं, क्योकि इन सब द्रव्यो का और मुझ निज आत्मा का द्रव्य क्षेत्र काल भाव पृथक्-पृथक् है, ऐसा जानकर ज्ञान दर्शन उपयोगमयी निज जीव तत्त्व का आश्रय ले, तो अहिंसादि पुण्यास्रव उपादेय है, ऐसा आस्रववत्व सम्बन्धी जीव की भूल रूप अगृहीत-गृहीत मिथ्या दर्शनादि का

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