Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 298
________________ ( 302 ) बताया है। (6) वर्तमान में विशेप रूप से मनुष्य भव व दिगम्बर धर्म होने पर भी कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र का उपदेश मानने से पुण्यबन्ध को अच्छा मानने रूप, ऐसा अनादिकाल का ज्ञान विशेप दृढ होने से, ऐसे ज्ञान को गृहीत मिथ्याज्ञान बताया है। (7) वर्तमान में विशेष रूप से मनुष्यभव व दिगम्वर धर्म होने पर भी कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र का उपदेश मानने से पुण्यवन्ध को अच्छा मानने रूप, ऐसा अनादिकाल का आचरण विशेष दृढ होने से ऐसे आचरण को गृहीत मिथ्याचारित्र बताया है। प्रश्न ६-पुण्यवन्ध को अच्छा मानने रूप, मान्यता को बन्धतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूलरूप अगृहीत, गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यकदर्शनादि की प्राप्ति होकर पूर्ण सुखीपना कैसे प्रगट होवे इसका उपाय छहढाला की दूसरी ढाल में क्या बताया है ? उत्तर-(१) मैं ज्ञान दर्शन उपयोगमयी जीवतत्व हूँ। (2) मेरा कार्य ज्ञाता दृष्टा है। (3) आँख, नाक, कान औदारिक आदि शरीरोरूप मेरी मूर्ति नहीं है / (4) चैतन्य अरूपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है / (5) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है। (6) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जीव है। (7) अनन्तान्त पुद्गल द्रव्य है। (8) असख्यात प्रदेशी एक-एक धर्म-अधर्म द्रव्य है / (6) अनन्त प्रदेशी एक आकाश द्रव्य है। (10) लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य हैं। इन सब द्रव्यो से मुझ निज आत्मा का किसी भी अपेक्षा किसी प्रकार का कर्ता-भोक्ता सम्बन्ध नही है, क्योकि इन सब द्रव्यो का और मुझ निज आत्मा का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पृथक-पृथक् है। ऐसा जानकर ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी निज जीव तत्व का आश्रय ले तो पुण्यबन्ध को अच्छा मानने रूप बघतत्व सम्बन्धी जीव की भूल रूप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर पूर्ण अतीन्द्रिय सुख को प्राप्ति होवे, यह उपाय छहढ़ाला की दूसरी ढाल मे बताया है।

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