Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 270
________________ ( 274 ) निश्चय-व्यवहार मुनिपने का ग्रहण भी मिथ्या वतला दिया तो वह किस प्रकार जाने-माने तो उसका निश्चय-व्यवहार मुनिपने का श्रद्धान सच्चा कहलावे ? (2) निश्चयनय से जहाँ शास्त्रो मे सकलचारित्ररूप शुद्धि को मुनिपना निरूपण किया हो उसे सत्यार्थ मुनिपना मानकर उसका श्रद्धान अगीकार करना। (3) व्यवहारनय से जहाँ शास्त्रो मे 28 मूलगुणादिरूप अशुद्धि को मुनिपना निरूपित किया हो उसे असत्यार्थ मुनिपना मानकर उसका श्रद्धान छोडना / (4) भगवान अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार कलश 173 मे कहा है कि सकलचारित्र शुद्धिरूप मुनिपना प्रगट पर्याय मे ना होने पर भी मुझे सकलचारित्र शुद्धिरूप मुनिपना प्रगट है-ऐसा मानना और 28 मूलगुणादि प्रवृत्ति को व्यवहार मुनिपना मानना-यह तो उभयाभासी मिथ्यादृष्टि का मिथ्या अध्यवसाय है तथा ऐसे-ऐसे और समस्त मिथ्या अध्यवसायो को छोड़ने का आदेश समस्त जिनेन्द्र भगवान की दिव्य ध्वनि मे आया है। (5) अमृतचन्द्राचार्य स्वय कहते हैं कि इसलिये मैं ऐसा मानता हूँ कि 28 मूलगुणादि का विकल्प जो पराश्रित व्यवहार कहा है सो सर्व ही छुडाया है। (6) तो फिर सन्तपुरुष एक परम निज त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव का आश्रय करके सकलचारित्र रूप शुद्धि को प्रगट करके शुद्धज्ञानघनरूप निज महिमा मे स्थिति क्यो नही करते ? अर्थात श्रेणी माडकर केवलज्ञान क्यो प्रगट नही करते ?--ऐसा कहकर आचार्य भगवान ने खेद प्रगट किया है। (7) भावार्थ मे बताया है कि 28 मूलगुणादि रूप व्यवहार मुनिपने का त्याग करके, निज त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव के आश्रय से सकलचारित्ररूप शुद्धि प्रगट करके निज महिमा मे प्रवर्तन करके श्रेणी माडकर केवलज्ञान प्रगट करना युक्त है। प्रश्न :-"(1) तथा षडपाहुड़ के मोक्ष पाहुड़ गाथा 31 में कुन्द-कुन्द भगवान ने कहा है कि (2) जो व्यवहार में सोता है वह योगी अपने आत्मकार्य में जागता है। (3) तथा जो व्यवहार में

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