________________
( ८० ) (ए) तत्व विचारादिक का तो उद्यम करे और मोहकर्म के उपशमादिक स्वयमेव हो तब रागादिक दूर होते है।
(मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ १६७) (ऐ) पर द्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के हो तो आत्मा पर द्रव्य का कर्ता-हर्ता हो जाए, परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन है नही।
(मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५२) (ओ) बाह्य व्रतादिक हैं वे तो शरीरादि पर द्रव्य के आश्रित है, पर द्रव्य का आप कर्ता है नही। इसलिए उसमे कर्तापने की बुद्धि भी नही करना और वहा ममत्व भी करना ।
(मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५५) (औ) पर द्रव्य का कर्ता-हर्ता होना तथा साक्षीभूत रहना यह परस्पर विरुद्ध है । साक्षीभूत तो उसका नाम है- जो स्वयमेव जैसा हो उसी प्रकार देखता जानता रहे, परन्तु जो इष्ट-अनिष्ट मानकर किसी को उत्पन्न करे और नाश करे तो साक्षीभूत कसे कहा जा सकता है । कभी नही।
(मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ १०९) (अ) कर्म के उदय से जीव को विकार होता है। यह मान्यता भ्रम मूलक है 'हे मित्र Ixxxपर द्रव्य ने मेरा द्रव्य मलिन किया जीव स्वय ऐसा झूठा भ्रम करता है। . xxतू उनका दोप जानता है, यह तेरा हरामजादीपना है।' (आत्मावलोकन पृष्ठ १४३)
(अ) समयसार कलश ५१,५२, ५३,५४,५६, १६६,२००,२०१ मे स्पष्ट समझाया है कि जीव शरीरादि पर द्रव्य की क्रिया नहीं कर सकता है । और निमित्त से सचमुच कार्य होता है, ऐसा मानना भ्रम
(क) मैं पर द्रव्य का कर्ता-हर्ता हू ऐसी मान्यता वाला पद पद पर धोखा खाता है।
(प्रवचनसार गा० ५५) (ख) पर द्रव्य का मैं करता हूँ यह अज्ञान मोह अज्ञान अन्धकार है उसका सुलटना अत्यन्त दुनिवार है। (समयसार कलश ५५)