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(६१ ) परिणमित होता है, आचरण करता है) तब वह विशुद्ध आत्मतत्व की उपलब्धि रूप अपवर्ग नगर को (मोक्षपुर को) प्राप्त करता है।
[पचास्तिकाय गा० ७० को टोका से] [यहाँ उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होने पर जीव जिनाज्ञा द्वारा मार्ग को प्राप्त हुआ अर्थात् चौथे गुणस्थान से मार्ग प्राप्त होता हुआ जैसेजैसे अपने स्वभाव को एकाग्रता करता जाता है वैसे-वैसे श्रावक, मुनि, श्रेणी, सिद्ध दशा को प्राप्त कर लेता है क्योकि उसको सम्यग्ज्ञान ज्योति प्रगट हो गई है।]
(च) ऐसे दर्शन मोह के अभावतै सत्यार्थ श्रद्धान, सत्यार्थज्ञान प्रगट होय है । अरु अनन्तानुबन्धी के अभावत स्वरूपाचरण चरित्र सम्यग्दृष्टि के प्रगट होय है । यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण के उदयतै देशचारित्र नाहिं भया है अरु प्रत्याख्यानावरण का उदयतै सकल चारित्र नाही प्रगट भया है। तो हूँ सम्यग्दृष्टि के देहादिक पर द्रव्य तथा रागद्वपादिक कर्म जनित परभाव इनमे दृढ भेद विज्ञान ऐसा भया है जो अपना ज्ञानदर्शनरूप ज्ञानस्वभाव ही मे आत्म-बुद्धि धारनेंतै अर पर्याय मे आत्मबुद्धि स्वप्न मे हूँ नाहि होने से ऐसा चिन्तवन कर हैं, हे आत्मन । अष्ट प्रकार स्पर्श... • • • • 'ये समस्त कर्म का उदय जनित विकार है मेरा स्वरूप तो ज्ञाता-दृष्टा है।
[रत्नकरण्ड श्रावकाचार गा० ४१ की टीका पृष्ठ ६८-६९] (छ) स्वसम्वेदन ज्ञान प्रथम अवस्था मे चौथे, पाँचवे गुणस्थान वाले गृहस्थ के भी होता है । वहाँ पर सराग देखने में आता है इसलिए रागसहित अवस्था के निषेध के लिए वीतराग स्वसम्वेदन ज्ञान ४-५ वें गुणस्थानी को प्रगट हुआ है ।
परमात्मा प्रकाशक गा० १२ की टीका पृष्ठ २१] (ज) मिथ्यात्व तथा राग आदि को जीतने के कारण असयत सम्यग्दृष्टि आदि एक देशी जिन है।
[बृहत द्रव्यसग्रह गाथा १, टीका पृष्ठ ५]