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( ८६ ) उसे भी विचारकर मोक्ष का हितरूप मानकर मोक्ष का उपाय करना सर्व उपदेश का तात्पर्य इतना है। (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३१०)
(इ) यह अवसर चूकना योग्य नही है। अब सर्व प्रकार से अवसर आया है, ऐसा अवसर प्राप्त करना कठिन है। इसलिये श्री गुरुदयालु होकर मोक्षमार्ग का उपदेश दे, उसमे भव्य जीवो को प्रवृत्ति करना।
(मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३१५) (ई) तत्वार्थ श्रद्धान करने का अभिप्राय केवल उनका निश्चय करना मात्र ही नहीं है, यहाँ अभिप्राय ऐसा है कि जीव-अजीव को पहिचानकर अपने को तथा पर को जैसा का तसा माने, तथा आस्रव को पहिचान कर उसे हेय माने, तथा बन्ध को पहिचानकर उसे अहित का कारण माने, सवर को पहिचान कर उसे उपादेय माने, तथा निर्जरा को पहिचान कर उसे हित का कारण माने तथा मोक्ष को पहिचानकर उसको अपना परम हित माने । ऐसा तत्वार्थ श्रद्धान का अभिप्राय है।
(मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३२०) . (उ) आश्रय करने के लिये एक मात्र अपना त्रिकाली एक परम शुद्ध पारिणामिक भाव ही है यह परम उपादेय है। सवर-निर्जरा एक देश प्रगट करने के लिए उपादेय है मोक्ष पूर्ण प्रगट करने के लिए उपादेय है; हित का कारण है परमहित है परन्तु आश्रय करने के लिए नही है । आस्रव-बन्ध, गुण्य-पाप हेय है और अजीव ज्ञेय हैं।
(नियमसार गा० ३८ से५० तक) (अ) अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिसेति, जिनागमस्य संक्षेप ॥४४॥ अर्थ-वास्तव मे राग आदि भावो का प्रगट न होना यह अहिसा है और उन्ही रागादि भावो की उत्पत्ति होना हिंसा है। यही जैन सिद्धान्त का सक्षिप्त रहस्य है। [पुरुषार्थसिद्धयुपाय गा० ४४]
(ए) जीव जुदा हैं, पुद्गल जुदा हैं यही तत्व का सार है अन्य जो कुछ कथन है सब इसी का विस्तार है। [इष्टोपदेश गा० ५०]