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जो उसके द्वारा सांसारिक प्रयोजन चाहते है वे वडा अन्याय करते है ।
(झ) जैन धर्म का सेवन तो ससार नाश के लिए किया जाता है, ( पूजा - शास्त्रादि कार्य ) साधना इसलिए वे तो मिथ्यादृष्टि है ही । [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २१६ ] (ञ) इस प्रकार सासारिक प्रयोजन सहित जो धर्म साधते है वे पापी भी है और मिथ्यादृष्टि तो हैं ही ।"
मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २२० ] (ट) जो जीव प्रथम से ही सांसारिक प्रयोजन सहित भक्ति करता है तो उसके पाप का ही अभिप्राय हुआ । [ मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २२२ ] (ठ) इस प्रयोजन के हेतु अरहन्तादिक की भक्ति करने से भी तीव्र कपाय होने के कारण पाप बध ही होता है ।
मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ८ ] (ड) "शास्त्र बाँचकर आजीविका आदि लौकिक कार्य साधने की "इच्छा न हो; क्योकि यदि आशावान हो तो यथार्थ उपदेश नही दे सकता ।" [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ १५ ]
४. अज्ञान की व्याख्या
( अ ) जीव की जो मान्यता हो तदनुसार ( उस मान्यता के अनुसार) जगत मे नही बनता हो तो वह मान्यता अज्ञान है ।
[ समयसार गा० २४८, २४६ ] ( आ ) पर पदार्थों को परिणमावने का अभिप्राय वास्तव मे अज्ञान ही है, क्योकि पर पदार्थ आत्मा के अधीन नही ।
इन्द्रियो से ज्ञान मानना अज्ञान है, क्योकि ज्ञान तो आत्मा से ही होता है । आत्मा ज्ञान के लिए इन्द्रिय-प्रकाश आदि बाह्य सामग्री सोधना अज्ञान है जिसको मोह महामल्ल जीवित है वह जीव अपने सुख और ज्ञान के लिए पर की ओर दौडता है यह अज्ञान है । [ प्रवचनसार गा० ५५ से ]