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(ए) इस प्रकार कार्य की उत्पत्ति के पूरे कारणी पर दृष्टिपात करने से भी यही फलित होता है कि जहाँ पर कार्य की उत्पत्ति अनुकूल द्रव्य का स्ववीयं तप उपादान शक्ति होती है वहां अन्य साधन सामग्री स्वयमेव मिल जाती है उसे मिलाना नही पडता है। जैन दर्शन मे कार्य को उत्पत्ति के प्रति उपादान और निमित्त होता है उसका ज्ञान कराया गया है । ( जैनतत्वमोमासा पृष्ठ ६७ )
(ऐ) वास्तव में भवितव्यता उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण है । जो भी कार्य होता है उस समय पर्याय की योग्यता ही साक्षात् साधक है दूसरा कोई नहीं । प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति मे उसकी उस समय पर्याय को योग्यता ही है, ऐसा जानकर स्वभाव की दृष्टि करे तो जीव का कल्याण हो । जो कोई मात्र भवितव्यता की बातें करे अपनी और दृष्टि ना करे तो उसने भवितव्यता को माना ही नहीं, एक कार्य मे अनेक कारण होते हैं। कार्य हमेशा उस समय पर्याय की योग्यता मे होता है और निमित्त भी स्वयं उन समय पर्याय की योग्यता मे होता ही है लाना मिलाना नही पडता ।
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प्रश्न- भवितव्यता को किसने माना ?
उत्तर- जिसने अपने स्वभाव की सन्मुखता को उसने भवितव्यता को माना, दूसरो ने नही माना ।
१०. जीव स्वयं नित्य ही है
(अ) आयुकर्म के उदय से मनुष्यादि पर्यायों की स्थिति रहती है। आयु का क्षय हो तब उस पर्यायरूप प्राण छूटने से मरण होता है । दूसरा कोई उत्पन्न करने वाला, क्षय करने वाला या रक्षा करने वाला है नहीं, ऐसा निश्चय करना । [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ४२ ]
(आ) शरीर सम्बन्ध की अपेक्षा जन्मादिक है । जीव जन्मादि रहिन नित्य ही है । तथापि मोही जीव को अतीत अनागत का विचार