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( ६५ ) (अ ) स्वर्गसुख का कारण प्रशस्त राग है और मोक्ष सुख का कारण वीतराग भाव है।" [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २३४]
(क) “सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इनकी एकता मोक्षमार्ग है वहीं धर्म है।"
मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ १५७] (ख) "जिन धर्म मे यह तो आम्नाय है कि पहले बडा पाप छुडाकर फिर छोटा पाप छुडाया है। इसलिए मिथ्यात्व को सप्तव्यमनादिक से भी बड़ा पाप जानकर पहले छुडाया है। इसलिए जो पाप के फल से डरते है, अपने आत्मा को दु ख समुद्र मे नही डुवाना चाहते वे जीव इस मिथ्यात्व को अवश्य छोडो।" [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ १६१]
(ग) "रागादिक का छोडना, इसी भाव का नाम धर्म अर्थात् जैन धर्म है"
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ १६१] (घ) “जैनधर्म का तो ऐसा उपदेश है, पहले तो तत्त्वज्ञानी हो, फिर जिसका त्याग करे उसका दोष पहिचाने, त्याग करने मे जो गुण हो उसे जाने, फिर अपने परिणामो को ठीक करे, वर्तमान परिणामो के ही भरोसे प्रतिज्ञा न कर बैठे, जेन धर्म मे प्रतिज्ञा न लेने का दण्ड तो है नहीं"
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २३६] (ड) "जिन्हे बन्ध नही करना हो वे कषाय नही करे"
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २८] (च) "जिनमत मे तो एक रागादि मिटाने का प्रयोजन है" ।
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३०३] (छ) “जिनमत मे तो यह परिपाटी है कि पहले सम्यक्त्व होता है, फिर व्रत होते हैं, वह सम्यक्त्व स्व-पर का श्रद्धान होने पर होता है और वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग का अभ्यास करने पर होता है, इसलिये प्रथम द्रव्यानुयोग के अनुसार श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि हो, पश्चात् चरणानुयोग के अनुसार व्रतादिक धारण करके व्रती हो। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० २६३],
(ज) स्व-पर के श्रद्धान मे शुद्धात्म श्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व गभित है।
[मोक्षमोर्गप्रकाशक चिटठी पृष्ठ २]