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इस शास्त्र का अभ्यास करना । कारण- सामान्यशास्त्र से विशेषशास्त्र बलवान है । वही कहा है- " सामान्य शास्त्र तो तून विशेषो बलवान भवेत् ।”
प्रश्न १८ - यहाँ कहते हैं कि अध्यात्मशास्त्रों में तो गुणस्थानादि विशेषों (-भेदो) से रहित शुद्धस्वरूप का अनुभव करना उपादेय कहा है और यह गुणस्यानादि सहित जीव का वर्णन है । इसलिये अध्यात्मशास्त्र और इस शास्त्र में तो विरुद्धता भासित होती है वह कैसे है ?
उत्तर - उसे कहते हैं
नय दो प्रकार के हैं १ निश्चय, २ व्यवहार |
निश्चय नय से जीव का स्वरूप गुणस्थानादि विशेष रहित अभेदवस्तु मात्र ही है । और व्यवहारनय से गुणस्थानादि विशेष सहित अनेक प्रकार है । वहाँ जो जीव सर्वोत्कृष्ट अभेद एक स्वभाव का अनुभव करता है उसको तो वहाँ शुद्धउपदेशरूप जो शुद्धनिश्चय वही कार्यकारी है । और जो स्वानुभावदशा को प्राप्त नही हुआ है वा स्वानुभवदशा से छूटकर सविकल्पदशा को प्राप्त है ऐसा अनुत्कृष्ट जो अशुद्धस्वभाव, उसमे स्थित जीवको व्यवहारनय ( उसकाल मे जाना हुआ जानने के अर्थ मे) प्रयोजनवान है । वही आत्मख्याति अध्यात्मशास्त्र में गाथा १२ मे कहा है
सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरसीहि । ववहारदेसिया पुण जे टु अपरमे ट्ठिदा भावे ॥ इस सूत्र के व्याख्यान के अर्थ को विचारकर देखना सुनो ! तुम्हारे परिणाम स्वरूपानुभव दशा मे तो वर्तते नही । और विकल्प जानकर गुणस्थानादि भेदो का विचार नही करोगे तो तुम इतो भ्रष्ट ततो भ्रष्ट होकर अशुभपयोग मे ही प्रवर्त्तन करोगे वहाँ तेरा बुरा होगा | सुन | सामान्यपने से तो वेदान्त आदि शास्त्राभासो मे भी जीवका स्वरूप शुद्ध कहते है वहाँ विशेष को जाने बिना यथार्थ - अययार्थ का निश्चय कैसे हो ?