________________
( ४३ )
'पदा करने का उद्यम करना । उसको कहते हैं
उत्तर-रे पापी । धन कुछ अपना उत्पन्न किया तो नही होता भाग्य से होता है। ग्रथाभ्यास आदि धर्म साधन से पुण्य की उत्पत्ति होती है उसी का नाम भाग्य है। यदि धन होना है तो शास्त्राभ्यास करने से कैसे नही होगा? अगर नही होना है तो शास्त्राभ्यास नहीं करने से कैसे होगा? इसलिये धन का होना,न होना तो उदयाधीन है, शास्त्राभ्यास मे क्यो शिथिल होता है ? सुन-धन है वह तो विनाशीक है भय सयुक्त है पाप से उत्पन्न होता है, नरकादिक का कारण है ।
और जो यह शास्त्राभ्यास रूम ज्ञानधन है वह अविनाशी है, भय रहित है, धर्मरूप है, स्वर्ग-मोक्ष का कारण है, अत महत पुरुप तो धनादिकको छोडकर शास्त्राभ्यास मे ही लगते हैं और तू पापी शास्त्राभ्यास को छुडाकर धन पैदा करने की बडाई करता है तो तू अनन्तससारी है। तूने कहा कि प्रभावनादि धर्म की धन से ही होता है। किन्तु वह प्रभावनादि धर्म तो किंचित सावधक्रिया सयुक्त है; इसलिये समस्त सावधरहित शास्त्राभ्यास रूप धर्म है वह प्रधान है, यदि ऐसा न हो तो गृहस्थ अवस्था मे प्रभावनादि धर्म साधन थे, उनको छोडकर सयमी होकर शास्त्राभ्यास मे किसलिये लगते हैं ?
शास्त्राभ्यास करने से प्रभावनादिक भी विशेष होती है। तूने कहा कि-धनवान के निकट पडित भी आकर के रहते हैं । सो लोभी पडित हो और अविवेकी धनवान हो वहाँ ऐसा होता है । और शास्त्राभ्यासवालो को तो इन्द्रादिक भी सेवा करते हैं, यहाँ भी बडे-बडे महत पुरुप दास होते देखे जाते हैं, इसलिये शास्त्राभ्यास वालो से धनवानो को महत न जान । तूने कहा कि धन से सर्व कार्यसिद्धि होती है, (किन्तु ऐसा नही हैं) उस धन से तो इस लोक सबधी कुछ विषयादिक कार्य इस प्रकार के सिद्ध होते हैं जिससे बहुत काल तक नरकादिक दुख सहन करने पड़ते हैं। और शास्त्राभ्यास से ऐसे कार्य सिद्ध होते हैं कि जिससे इस लोक परलोक मे अनेक सुखो की परपरा प्राप्त होती हैं इसलिये धन पैदा करने के विकल्प को छोडकर शास्त्राभ्यास